Monday, October 6, 2014

Chapter 2 Shloka 21

    वेदाविनाशिनं नित्यं य एनमजमव्ययम् ।
      कथं स पुरुषः पार्थ कं घातयति हन्ति कम् ॥ २-२१ ॥
        वेद अविनाशिनम् नित्यम् यः एनम् अजम् अव्ययम् ।
          कथम् सः पुरुषः पार्थ कम् घातयति हन्ति कम् ॥ २-२१ ॥

          हे पार्थ!यः एनम् अविनाशिनम् नित्यम् अजम् अव्ययम् वेद,
          सः पुरुषः कथम् कम् घातयति, कम् हन्ति ?

          vedāvināśinaṁ nityaṁ
          ya enam ajam avyayam
          kathaṁ sa puruṣaḥ pārtha
          kaṁ ghātayati hanti kam

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            • वेद = knows
            • अविनाशिनं = indestructible
            • नित्यं = always existing
            • यः = one who
            • एनं = this (soul)
            • अजं = unborn
            • अव्ययं = immutable
            • कथं = how
            • सः = that
            • पुरुषः = person
            • पार्थ = O Partha (Arjuna)
            • कं = whom
            • घातयति = causes to hurt
            • हन्ति = kills
            • कं = whom.
            • Hindi translation by Swami Ram Sukhdasहे पृथानन्दन! जो मनुष्य इस शरीरीको अविनाशी, नित्य, जन्मरहित और अव्यय जानता है, वह कैसे किसको मारे और कैसे किसको मरवाये? ।।2.21।।
            • English translation by Swami Sivananda Whosoever knows It to be indestructible, eternal, unborn and inexhaustible, how can that man slay, O Arjuna, or cause to be slain? 
                   Hindi commentary by Swami Ramsukhdas
                व्याख्या -- वेदाविनाशिनम् ... घातयति हन्ति कम् -- इस शरीरीका कभी नाश नहीं होता, इसमें कभी कोई परिवर्तन नहीं होता, इसका कभी जन्म नहीं होता और इसमें कभी किसी तरहकी कोई कमी नहीं आती -- ऐसा जो ठीक अनुभव कर लेता है, वह पुरुष कैसे किसको मारे और कैसे किसको मरवाये? अर्थात् दूसरोंको मारने और मरवानेमें उस पुरुषकी प्रवृत्ति नहीं हो सकती। वह किसी क्रियाका न तो कर्ता बन सकता है और न कारयिता बन सकता है।यहाँ भगवान्ने शरीरीको अविनाशी, नित्य, अज और अव्यय कहकर उसमें छहों विकारोंका निषेध किया है; जैसे -- अविनाशी कहकर मृत्युरूप विकारका, नित्य कहकर अवस्थान्तर होना और बढ़नारूप विकारका, अज कहकर जन्म होना और जन्मके बाद होनेवाली सत्तारूप विकारका, तथा अव्यय कहकर क्षयरूप विकारका निषेध किया गया है। शरीरीमें किसी भी क्रियासे किञ्चिन्मात्र भी कोई विकार नहीं होता।अगर भगवान्को न हन्यते हन्यमाने शरीरे और कं घातयति हन्ति कम् इन पदोंमें शरीरीके कर्ता और कर्म बननेका ही निषेध करना था, तो फिर यहाँ करने-न-करनेकी बात न कहकर मरने-मारनेकी बात क्यों कही? इसका उत्तर है कि युद्धका प्रसङ्ग होनेसे यहाँ यह कहना जरूरी है कि शरीरी युद्धमें मारनेवाला नहीं बनता; क्योंकि इसमें कर्तापन नहीं है। जब शरीरी मारनेवाला अर्थात् कर्ता नहीं बन सकता, तब यह मरनेवाला अर्थात् क्रियाका विषय (कर्म) भी कैसे बन सकता है। तात्पर्य यह है कि यह शरीरी किसी भी क्रियाका कर्ता और कर्म नहीं बनता। अतः मरने-मारनेमें शोक नहीं करना चाहिये, प्रत्युत शास्त्रकी आज्ञाके अनुसार प्राप्त कर्तव्य-कर्मका पालन करना चाहिये।सम्बन्ध -- पूर्वश्लोकोंमें देहीकी निर्विकारताका जो वर्णन हुआ है, आगेके श्लोकमें उसीका दृष्टान्तरूपसे वर्णन करते हैं ।।2.21।।
                  Hindi commentary by Swami Chinmayananda 
                    आत्मा की वर्णनात्मक परिभाषा नहीं दी जा सकती परन्तु उसका संकेत नित्य अविनाशी आदि शब्दों के द्वारा किया जा सकता है। यहाँ इस श्लोक में प्रश्नार्थक वाक्य के द्वारा पूर्व श्लोकों में प्रतिपादित सिद्धान्त की ही पुष्टि करते हैं कि जो पुरुष अविनाशी आत्मा को जानता है, वह कभी जीवन की वास्तविकताओं का सामना करने में शोकाकुल नहीं होता।आत्मा के अव्यय,अविनाशी, अजन्मा और शाश्वत स्वरूप को जान लेने पर कौन पुरुष स्वयं पर कर्तृत्व का आरोप कर लेगा ? भगवान् कहते हैं कि ऐसा पुरुष न किसी को मारता है और न किसी के मरने का कारण बनता है। यहाँ ध्यान देने की बात यह है कि इस वाक्य का सम्बन्ध स्वयं भगवान् तथा अर्जुन दोनों से ही है। यदि अर्जुन इस तथ्य को स्वयं समझ लेता है, तो उसे स्वयं को अजन्मा आत्मा का हत्यारा मानने का कोई प्रश्न नहीं रह जाता है।किस प्रकार आत्मा अविनाशी है ? अगले श्लोक में एक दृष्टांत के द्वारा इसे स्पष्ट करते हैं -- ।।2.21।।
                  English commentary by Swami Sivananda
                   The enlightened sage who knows the immutable and indestructible Self through direct cognition or spiritual Anubhava (experience) cannot do the act of slaying. He cannot cause another to slay also.


                  Wednesday, October 1, 2014

                  Chapter 2 Shloka 20

                      न जायते म्रियते वा कदाचिन् नायं भूत्वा भविता वा न भूयः । अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे ॥ २-२० ॥ न जायते म्रियते वा कदाचित् न अयम् भूत्वा भविता वा न भूयः । अजः नित्यः शाश्वतः अयम् पुराणः न हन्यते हन्यमाने शरीरे ॥ २-२० ॥ अयम् कदाचित् न जायते, न वा म्रियते, (अयम्)भूत्वा भूयः भविता वा न. अयम् अजः नित्यः शाश्वतः पुराणः, शरीरे हन्यमाने न हन्यते ।
                    na jāyate mriyate vā kadācin nāyaṁ bhūtvā bhavitā vā na bhūyaḥ ajo nityaḥ śāśvato 'yaṁ purāṇo na hanyate hanyamāne śarīre
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                      न = never जायते = takes birth म्रियते = dies वा = either कदाचित् = at any time (past, present or future) न = never अयं = this भूत्वा = having come into being भविता = will come to be वा = or न = not भूयः = or is again coming to be अजः = unborn नित्यः = eternal शाश्वतः = permanent अयं = this पुराणः = the oldest न = never हन्यते = is killed हन्यमाने = being killed शरीरे = the body.
                    Hindi translation by Swami Ram Sukhdasयह शरीरी न कभी जन्मता है और न मरता है। यह उत्पन्न होकर फिर होनेवाला नहीं है। यह जन्मरहित, नित्य-निरन्तर रहनेवाला, शाश्वत और पुराण (अनादि) है। शरीरके मारे जानेपर भी यह नहीं मारा जाता ।।2.20।।
                    English translation by Swami Sivananda2.20 It is not born, nor does It ever die; after having been, It again ceases not to be; unborn, eternal, changeless and ancient, It is not killed when the body is killed.  
                    Hindi commentary by Swami Ramsukhdas
                    व्याख्या -- शरीरमें छः विकार होते हैं -- उत्पन्न होना, सत्तावाला दीखना, बदलना, बढ़ना, घटना और नष्ट होना (टिप्पणी प0 60.1)। यह शरीरी इन छहों विकारोंसे रहित है -- यही बात भगवान् इस श्लोकमें बता रहे हैं (टिप्पणी प0 60.2)।न जायते म्रियते वा कदाचिन्न -- जैसे शरीर उत्पन्न होता है, ऐसे यह शरीरी कभी भी, किसी भी समयमें उत्पन्न नहीं होता। यह तो सदासे ही है। भगवान्ने इस शरीरीको अपना अंश बताते हुए इसको ' सनातन ' कहा है ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः (15। 7)।यह शरीरी कभी मरता भी नहीं। मरता वही है, जो पैदा होता है; और म्रियते का प्रयोग भी वहीं होता है, जहाँ पिण्ड-प्राणका वियोग होता है। पिण्ड-प्राणका वियोग शरीरमें होता है। परन्तु शरीरीमें संयोग-वियोग दोनों ही नहीं होते। यह ज्यों-का-त्यों ही रहता है। इसका मरना होता ही नहीं।सभी विकारोंमें जन्मना और मरना -- ये दो विकार ही मुख्य हैं; अतः भगवान्ने इनका दो बार निषेध किया है -- जिसको पहले न जायते कहा, उसीको दुबारा अजः कहा है; और जिसको पहले न म्रियते कहा, उसीको दुबारा न हन्यते हन्यमाने शरीरे कहा है।अयं भूत्वा भविता वा न भूयः -- यह अविनाशी नित्य-तत्त्व पैदा होकर फिर होनेवाला नहीं है अर्थात् यह स्वतःसिद्ध निर्विकार है। जैसे, बच्चा पैदा होता है, तो पैदा होनेके बाद उसकी सत्ता होती है। जबतक वह गर्भमें नहीं आता, तबतक ' बच्चा है ' ऐसे उसकी सत्ता (होनापन) कोई भी नहीं कहता। तात्पर्य है कि बच्चेकी सत्ता पैदा होनेके बाद होती है; क्योंकि उस विकारी सत्ताका आदि और अन्त होता है। परन्तु इस नित्य-तत्त्वकी सत्ता स्वतःसिद्ध और निर्विकार है; क्योंकि इस अविकारी सत्ताका आरम्भ और अन्त नहीं होता।अजः -- इस शरीरीका कभी जन्म नहीं होता। इसलिये यह अजः अर्थात् जन्मरहित कहा गया है।' नित्यः' -- यह शरीरी नित्य-निरन्तर रहनेवाला है, अतः इसका कभी अपक्षय नहीं होता। अपक्षय तो अनित्य वस्तुमें होता है, जो कि निरन्तर रहनेवाली नहीं है। जैसे, आधी उम्र बीतनेपर शरीर घटने लगता है, बल क्षीण होने लगता है, इन्द्रियोंकी शक्ति कम होने लगती है। इस प्रकार शरीर, इन्द्रियाँ, अन्तःकरण आदिका तो अपक्षय होता है, पर शरीरीका अपक्षय नहीं होता। इस नित्य-तत्त्वमें कभी किञ्चन्मात्र भी कमी नहीं आती।शाश्वतः -- यह नित्य-तत्त्व निरन्तर एकरूप, एकरस रहनेवाला है। इसमें अवस्थाका परिवर्तन नहीं होता अर्थात् यह कभी बदलता नहीं। इसमें बदलनेकी योग्यता है ही नहीं।पुराणः -- यह अविनाशी तत्त्व पुराण (पुराना) अर्थात् अनादि है। यह इतना पुराना है कि यह कभी पैदा हुआ ही नहीं। उत्पन्न होनेवाली वस्तुओंमें भी देखा जाता है कि जो वस्तु पुरानी हो जाती है, वह फिर बढ़ती नहीं, प्रत्युत नष्ट हो जाती है; फिर यह तो अनुत्पन्न तत्त्व है, इसमें बढ़नारूप विकार कैसे हो सकता है? तात्पर्य है कि बढ़नारूप विकार तो उत्पन्न होनेवाली वस्तुओंमें ही होता है, इस नित्य-तत्त्वमें नहीं।न हन्यते हन्यमाने शरीरे -- शरीरका नाश होनेपर भी इस अविनाशी शरीरीका नाश नहीं होता। यहाँ शरीरे पद देनेका तात्पर्य है कि यह शरीर नष्ट होनेवाला है। इस नष्ट होनेवाले शरीरमें ही छः विकार होते हैं, शरीरीमें नहीं।इन पदोंमें भगवान्ने शरीर और शरीरीका जैसा स्पष्ट वर्णन किया है, ऐसा स्पष्ट वर्णन गीतामें दूसरी जगह नहीं आया है।अर्जुन युद्धमें कुटुम्बियोंके मरनेकी आशंकासे विशेष शोक कर रहे थे। उस शोकको दूर करनेके लिये भगवान् कहते हैं कि शरीरके मरनेपर भी इस शरीरीका मरना नहीं होता अर्थात् इसका अभाव नहीं होता। इसलिये शोक करना अनुचित है।सम्बन्ध -- उन्नीसवें श्लोकमें भगवान्ने बताया कि यह शरीरी न तो मारता है और न मरता ही है। इसमें मरनेका निषेध तो बीसवें श्लोकमें कर दिया, अब मारनेका निषेध करनेके लिये आगेका श्लोक कहते हैं ।।2.20।।

                    Hindi commentary by Swami Chinmayananda 
                    इस श्लोक में बताया गया है कि शरीर में होने वाले समस्त विकारों से आत्मा परे है। जन्म, अस्तित्व, वृद्धि, विकार, क्षय और नाश ये छ: प्रकार के परिर्वतन शरीर में होते हैं, जिनके कारण जीव को कष्ट भोगना पड़ता है। एक र्मत्य शरीर के लिये इन समस्त दु:ख के कारणों का आत्मा के लिये निषेध किया गया है अर्थात् आत्मा इन विकारों से सर्वथा मुक्त है।शरीर के समान आत्मा का जन्म नहीं होता, क्योंकि वह तो सर्वदा ही विद्यमान है। तरंगों की उत्पत्ति होती है, और उनका नाश होता है, परन्तु उनके साथ न तो समुद्र की उत्पत्ति होती है और न ही नाश। जिसका आदि है उसी का अन्त भी होता है। उत्ताल तरंगे ही मृत्यु की अन्तिम श्वांस लेती हैं। सर्वदा विद्यमान आत्मा के जन्म और
                  English commentary by Swami Sivananda This Self (Atman) is destitute of the six types of transformation or Bhava-Vikaras such as birth, existence, growth, transformation, decline and death. As It is indivisible (Akhanda). It does not diminish in size. It neither grows nor does It decline. It is ever the same. Birth and death are for the physical body only. Birth and death cannot touch the immortal, all-pervading Self.