न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपाः | न चैव न भविष्यामः सर्वे वयमतः परम् ||२- १२||
- न तु एव अहम् जातु न आसम् न त्वम् न इमे जनाधिपाः |
न च एव न भविष्यामः सर्वे वयम् अतः परम् ||२-१२||
अहम् जातु न आसम् (इति)न तु एव, त्वम् (जातु न आसीः इति)न,
इमे जनाधिपाः (जातु न आसन् इति)न, |
अतः परम् च वयम् सर्वे न भविष्यामः (इति)न एव |
- न = never
तु = but
एव = certainly
अहं = I
जातु = at any time
न = did not
आसं = exist
न = not
त्वं = you
न = not
इमे = all these
जनाधिपः = kings
न = never
च = also
एव = certainly
न = not
भविष्यामः = shall exist
सर्वे वयं = all of us
अतः परं = hereafter.
Hindi commentary by Swami Chinmayananda
यहाँ भगवान् स्पष्ट घोषणा करते हैं कि देह को धारण करने वाली आत्मा एक महान तीर्थयात्रा के लिये निकल पड़ी है जो इस यात्रा के मध्य कुछ काल के लिये विभिन्न शरीरों को ग्रहण करते हुये उनके साथ तादात्म्य कर विशेष अनुभवों को प्राप्त करती है। श्रीकृष्ण, अर्जुन और अन्य राजाओं का उन विशेष शरीरों में होना कोई आकस्मिक घटना नहीं थी। न वे शून्य से आये और न ही मृत्यु के बाद शून्य रूप हो जायेंगे। प्रामाणिक तात्त्विक विचार के द्वारा मनुष्य भूत, वर्तमान और भविष्य की घटनाओं की सतत शृंखला समझ सकता है। आत्मा वहीं रहती हुई अनेक शरीरों को ग्रहण करके प्राप्त परिस्थितियों का अनुभव करती प्रतीत होती है।यही हिन्दू दर्शन का प्रसिद्ध पुनर्जन्म का सिद्धान्त है। इस सिद्धान्त के सबसे बड़े विरोधियों ने अपने स्वयं के धर्म-ग्रन्थ का ही ठीक से अध्ययन नहीं किया प्रतीत होता है। स्वयं ईसा मसीह ने, यदि प्रत्यक्ष नहीं तो अप्रत्यक्ष रूप से, इस सिद्धान्त को स्वीकार किया है। जब उन्होंने अपने शिष्यों से कहा था कि जान ही एलिजा था। ओरिजेन नामक विद्वान ईसाई पादरी ने स्पष्ट रूप से कहा है, "प्रत्येक मनुष्य को अपने पूर्व जन्म के पुण्यों के फलस्वरूप यह शरीर प्राप्त हुआ है।"कोई-भी ऐसा महान विचारक नहीं है, जिसने पूर्व जन्म के सिद्धान्त को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से स्वीकार नहीं किया गया है। गौतम बुद्ध सदैव अपने पूर्व जन्मों का सन्दर्भ दिया करते थे। वर्जिल और ओविड दोनों ने इस सिद्धान्त को स्वत: प्रमाणित स्वीकार किया है। जोसेफस ने कहा है कि उसके समय यहूदियों में पुनर्जन्म के सिद्धान्त पर पर्याप्त विश्वास था। सालोमन ने "बुक आफ विज्डम" में कहा है "एक स्वस्थ शरीर में स्वस्थ अंगों के साथ जन्म लेना, पूर्व जीवन में किये गये पुण्य कर्मों का फल है।" और इस्लाम के पैगम्बर मोहम्मद के इस कथन को कौन नहीं जानता, जिसमें उन्होंने कहा कि, "मैं पत्थर से मरकर पौधा बना, पौधे से मरकर पशु बना, पशु से मरकर मैं मनुष्य बना, फिर मरने से मैं क्यों डरूँ? मरने से मुझमें कमी कब आयी? मनुष्य से मरकर मैं देवदूत बनूँगा!"इसके बाद के काल में जर्मनी के विद्वान दार्शनिक गोथे, फिख्टे, शेलिंग और लेसिंग ने भी इस सिद्धान्त को स्वीकार किया। बीसवीं शताब्दी के ही ह्यूम, स्पेन्सर और मेक्समूलर जैसे दार्शनिकों ने इसे विवाद रहित सिद्धान्त माना है। पश्चिम के प्रसिद्ध कवियों को भी कल्पना के स्वच्छाकाश में विचरण करते हुये अन्त: प्रेरणा से इसी सिद्धान्त का अनुभव हुआ, जिनमें ब्राउनिंग, रोसेटी, टेनिसन, वर्डस्वर्थ आदि प्रमुख नाम हैं।पुनर्जन्म का सिद्धान्त तत्त्वचिन्तकों की कोई कोरी कल्पना नहीं है। वह दिन दूर नहीं जब मनोविज्ञान के क्षेत्र में तेजी से हो रहे विकास के कारण, जो तथ्य संग्रहीत किये जा रहें हैं, उनके दबाव व प्रभाव से पश्चिमी राष्ट्रों को अपने धर्म ग्रन्थों का पुनर्लेखन करना पड़ेगा। बिना किसी दुराग्रह और दबाव के जीवन की यथार्थता को जो समझना चाहते हैं वे जगत् में दृष्टिगोचर 'विषमताओं' के कारण चिन्तित होते हैं। इन सबको केवल 'संयोग' कहकर टाला नहीं जा सकता। यदि हम तर्क को स्वीकार करते हैं तो देह से भिन्न जीव के अस्तित्व को मानना ही पड़ता है। मोझार्ट का एक दर्शनीय दृष्टान्त है। उसने 4 वर्ष की आयु में वाद्यवृन्द की रचना की और पांचवें वर्ष में लोगों के सामने कार्यक्रम प्रस्तुत किया और सात वर्ष की अवस्था में संगीत नाटक की रचना की। भारत के शंकराचार्य आदि का जीवन देखें तो ज्ञात होता है कि बाल्यावस्था में ही उनको कितना उच्च ज्ञान था। पुनर्जन्म के सिद्धान्त को स्वीकार न करने पर इन आश्चर्यजनक घटनाओं को 'संयोग' मात्र कहकर कूड़ेदानी में फेंक देना पड़ेगा!!पुनर्जन्म को सिद्ध करने वाली अनेक घटनायें देखी जाती हैं, परन्तु उन्हें प्रमाण के रूप में संग्रहीत बहुत कम किया जाता है। जैसा कि मैंने कहा, आधुनिक जगत् को इस महान स्वत: प्रमाणित जीवन के नियम के सम्बन्ध में शोध करना अभी शेष है। अपरिपक्व विचार वाले व्यक्ति को प्रारम्भ में इस सिद्धान्त को स्वीकार करने में संदेह हो सकता है। जब भगवान् ने कहा कि उन सबका नाश होने वाला नहीं है तब उनके कथन को जगत् का एक सामान्य व्यक्ति होने के नाते अर्जुन ठीक से ग्रहण नहीं कर पाया। उसने प्रश्नार्थक मुद्रा में श्रीकृष्ण की ओर देखकर अधिक स्पष्टीकरण की मांग की।"इनका शोक क्यों नहीं करना चाहिये ? क्योंकि स्वरूप से ये सब नित्य हैं। कैसे ?"...भगवान् कहते हैं - ।।2.12।।
English commentary by Swami Sivananda
2.12 न not, तु indeed, एव also, अहम् I, जातु at any time, न not, आसम् was, न not, त्वम् thou, न not, इमे these, जनाधिपाः rulers of men, न not, च and, एव also, न not, भविष्यामः shall be, सर्वे all, वयम् we, अतः from this time, परम् after.Commentary -- Lord Krishna speaks here of the immortality of the Soul or the imperishable nature of the Self (Atman). The Soul exists in the three periods of time (past, present and future). Man continues to exist even after the death of the physical body. There is life beyond.
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