- मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदुःखदाः |
आगमापायिनोऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत ||२-१४||
मात्रा-स्पर्शाः तु कौन्तेय शीत-उष्ण-सुख-दुःख-दाः |
आगम अपायिनः अनित्याः | भारत तान् तितिक्षस्व ||२-१४||
हे कौन्तेय!मात्रा-स्पर्शाः तु शीत-उष्ण-सुख-दुःख-दाः,
आगम अपायिनः, अनित्याः | हे भारत!तान् तितिक्षस्व |
- मात्रास्पर्शः = sensory perception
तु = only
कौन्तेय = O son of Kunti
शीत = winter
उष्ण = summer
सुख = happiness
दुःख = and pain
दाः = giving
आगम = appearing
अपायिनः = disappearing
अनित्यः = nonpermanent
तान् = all of them
तितिक्षस्व = just try to tolerate
भारत = O descendant of the Bharata dynasty.
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Hindi translation by Swami Ram Sukhdas
हे कुन्तीनन्दन! इन्द्रियोंके जो विषय (जड पदार्थ) हैं, वे तो शीत (अनुकूलता) और उष्ण (प्रतिकूलता) के द्वारा सुख और दुःख देनेवाले हैं। वे आने-जानेवाले और अनित्य हैं। हे भरतवंशोद्भव अर्जुन! उनको तुम सहन करो ।।2.14।।
English translation by Swami Sivananda
2.14 The contacts of the senses with the objects, O son of Kunti, which cause heat and cold, pleasure and pain, have a beginning and an end; they are impermanent; endure them bravely, O Arjuna.
Hindi commentary by Swami Chinmayananda
विषय ग्रहण की वेदान्त की प्रक्रिया के अनुसार बाह्य वस्तुओं का ज्ञान इन्द्रियों के 'द्वारा' होता है। इन्द्रियाँ तो केवल उपकरण हैं, जिनके द्वारा जीव विषय ग्रहण करता है, उनको जानता है। जीव के बिना केवल इन्द्रियाँ विषयों का ज्ञान नहीं करा सकतीं।यह तो सर्वविदित है कि एक ही वस्तु दो भिन्न व्यक्तियों को भिन्न प्रकार का अनुभव दे सकती है। एक ही वस्तु के द्वारा जो दो भिन्न अनुभव होते हैं, उसका कारण उन दो व्यक्तियों की मानसिक संरचना का अन्तर है।यह भी देखा गया है कि व्यक्ति को एक समय, जो वस्तु अत्यन्त प्रिय थी, वही जीवन की दूसरी अवस्था में अप्रिय हो जाती है ; क्योंकि जैसे-जैसे समय व्यतीत होता जाता है, उसके मन में भी परिवर्तन होता जाता है। संक्षेप में, यह स्पष्ट है कि जब हमारा इन्द्रियों के द्वारा बाह्य विषयों के साथ सम्पर्क होता है, तभी किसी प्रकार का अनुभव भी संभव है।जो पुरुष यह समझ लेता है कि जगत् की वस्तुयें नित्य परिवर्तनशील हैं, उत्पन्न और नष्ट होती रहती हैं, वह पुरुष इन वस्तुओं के कारण स्वयं को कभी विचलित नहीं होने देगा। काल के प्रवाह में भविष्य की घटनायें वर्तमान का रूप लेती हैं और हमें विभिन्न अनुभवों को प्रदान करके निरन्तर भूतकाल में समाविष्ट हो जाती हैं। जगत् की कोई भी वस्तु एक क्षण के लिये भी विकृत हुये बिना नहीं रह सकती । यहाँ परिवर्तन ही एक अपरिवर्तनशील नियम है।इस नियम को समझ कर आदि और अन्त से युक्त वस्तुओं के होने या नहीं होने से बुद्धिमान पुरुष को शोक का कोई कारण नहीं रह जाता। शीत और उष्ण, सफलता और असफलता, सुख और दु:ख - कोई भी नित्य नहीं हैं। जब वस्तुस्थिति ऐसी है, तो प्रत्येक परिवर्तित परिस्थिति के कारण क्षुब्ध या चिन्तित होना अज्ञान का ही लक्षण है। जीवन में आने वाले कष्टों को चिन्तित हुये बिना शान्तिपूर्वक सहन करना चाहिये। सभी प्रकार की अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थितियों में विवेकी पुरुष इस तथ्य को सदा ध्यान में रखता है कि "यह भी बीत जायेगा।"जगत् की वस्तुयें परिच्छिन्न हैं, क्योंकि उनका आदि है और अन्त है। भगवान् कहते हैं कि ये वस्तुयें स्वभाव से ही अनित्य हैं। 'अनित्य' शब्द से तात्पर्य यह है कि एक ही वस्तु किसी एक व्यक्ति के लिये ही कभी सुखदायक तो कभी दु:खदायक हो सकती है।"शीत-उष्ण आदि को समान भाव से सहने वाले व्यक्ति को क्या लाभ मिलेगा?" सुनिये -- ।।2.14।।
English commentary by Swami Sivananda
2.14 मात्रास्पर्शाः contacts of senses with objects, तु indeed, कौन्तेय O Kaunteya (son of Kunti), शीतोष्णसुखदुःखदाः producers of cold and heat, pleasure and pain, आगमापायिनः with beginning and end, अनित्याः impermanent, तान् them, तितिक्षस्व bear (thou), भारत O Bharata.Commentary -- Cold is pleasant at one time and painful at another. Heat is pleasant in winter but painful in summer. The same object that gives pleasure at one time gives pain at another time. So the sense-contacts that give rise to the sensations of heat and cold, pleasure and pain come and go. Therefore, they are impermanent in nature. The objects come in contact with the senses or the Indriyas, viz., skin, ear, eye, nose, etc., and the sensations are carried by the nerves to the mind which has its seat in the brain. It is the mind that feels pleasure and pain. One should try to bear patiently heat and cold, pleasure and pain and develop a balanced state of mind. (Cf.V.22)
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