Monday, October 6, 2014

Chapter 2 Shloka 21

    वेदाविनाशिनं नित्यं य एनमजमव्ययम् ।
      कथं स पुरुषः पार्थ कं घातयति हन्ति कम् ॥ २-२१ ॥
        वेद अविनाशिनम् नित्यम् यः एनम् अजम् अव्ययम् ।
          कथम् सः पुरुषः पार्थ कम् घातयति हन्ति कम् ॥ २-२१ ॥

          हे पार्थ!यः एनम् अविनाशिनम् नित्यम् अजम् अव्ययम् वेद,
          सः पुरुषः कथम् कम् घातयति, कम् हन्ति ?

          vedāvināśinaṁ nityaṁ
          ya enam ajam avyayam
          kathaṁ sa puruṣaḥ pārtha
          kaṁ ghātayati hanti kam

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            • वेद = knows
            • अविनाशिनं = indestructible
            • नित्यं = always existing
            • यः = one who
            • एनं = this (soul)
            • अजं = unborn
            • अव्ययं = immutable
            • कथं = how
            • सः = that
            • पुरुषः = person
            • पार्थ = O Partha (Arjuna)
            • कं = whom
            • घातयति = causes to hurt
            • हन्ति = kills
            • कं = whom.
            • Hindi translation by Swami Ram Sukhdasहे पृथानन्दन! जो मनुष्य इस शरीरीको अविनाशी, नित्य, जन्मरहित और अव्यय जानता है, वह कैसे किसको मारे और कैसे किसको मरवाये? ।।2.21।।
            • English translation by Swami Sivananda Whosoever knows It to be indestructible, eternal, unborn and inexhaustible, how can that man slay, O Arjuna, or cause to be slain? 
                   Hindi commentary by Swami Ramsukhdas
                व्याख्या -- वेदाविनाशिनम् ... घातयति हन्ति कम् -- इस शरीरीका कभी नाश नहीं होता, इसमें कभी कोई परिवर्तन नहीं होता, इसका कभी जन्म नहीं होता और इसमें कभी किसी तरहकी कोई कमी नहीं आती -- ऐसा जो ठीक अनुभव कर लेता है, वह पुरुष कैसे किसको मारे और कैसे किसको मरवाये? अर्थात् दूसरोंको मारने और मरवानेमें उस पुरुषकी प्रवृत्ति नहीं हो सकती। वह किसी क्रियाका न तो कर्ता बन सकता है और न कारयिता बन सकता है।यहाँ भगवान्ने शरीरीको अविनाशी, नित्य, अज और अव्यय कहकर उसमें छहों विकारोंका निषेध किया है; जैसे -- अविनाशी कहकर मृत्युरूप विकारका, नित्य कहकर अवस्थान्तर होना और बढ़नारूप विकारका, अज कहकर जन्म होना और जन्मके बाद होनेवाली सत्तारूप विकारका, तथा अव्यय कहकर क्षयरूप विकारका निषेध किया गया है। शरीरीमें किसी भी क्रियासे किञ्चिन्मात्र भी कोई विकार नहीं होता।अगर भगवान्को न हन्यते हन्यमाने शरीरे और कं घातयति हन्ति कम् इन पदोंमें शरीरीके कर्ता और कर्म बननेका ही निषेध करना था, तो फिर यहाँ करने-न-करनेकी बात न कहकर मरने-मारनेकी बात क्यों कही? इसका उत्तर है कि युद्धका प्रसङ्ग होनेसे यहाँ यह कहना जरूरी है कि शरीरी युद्धमें मारनेवाला नहीं बनता; क्योंकि इसमें कर्तापन नहीं है। जब शरीरी मारनेवाला अर्थात् कर्ता नहीं बन सकता, तब यह मरनेवाला अर्थात् क्रियाका विषय (कर्म) भी कैसे बन सकता है। तात्पर्य यह है कि यह शरीरी किसी भी क्रियाका कर्ता और कर्म नहीं बनता। अतः मरने-मारनेमें शोक नहीं करना चाहिये, प्रत्युत शास्त्रकी आज्ञाके अनुसार प्राप्त कर्तव्य-कर्मका पालन करना चाहिये।सम्बन्ध -- पूर्वश्लोकोंमें देहीकी निर्विकारताका जो वर्णन हुआ है, आगेके श्लोकमें उसीका दृष्टान्तरूपसे वर्णन करते हैं ।।2.21।।
                  Hindi commentary by Swami Chinmayananda 
                    आत्मा की वर्णनात्मक परिभाषा नहीं दी जा सकती परन्तु उसका संकेत नित्य अविनाशी आदि शब्दों के द्वारा किया जा सकता है। यहाँ इस श्लोक में प्रश्नार्थक वाक्य के द्वारा पूर्व श्लोकों में प्रतिपादित सिद्धान्त की ही पुष्टि करते हैं कि जो पुरुष अविनाशी आत्मा को जानता है, वह कभी जीवन की वास्तविकताओं का सामना करने में शोकाकुल नहीं होता।आत्मा के अव्यय,अविनाशी, अजन्मा और शाश्वत स्वरूप को जान लेने पर कौन पुरुष स्वयं पर कर्तृत्व का आरोप कर लेगा ? भगवान् कहते हैं कि ऐसा पुरुष न किसी को मारता है और न किसी के मरने का कारण बनता है। यहाँ ध्यान देने की बात यह है कि इस वाक्य का सम्बन्ध स्वयं भगवान् तथा अर्जुन दोनों से ही है। यदि अर्जुन इस तथ्य को स्वयं समझ लेता है, तो उसे स्वयं को अजन्मा आत्मा का हत्यारा मानने का कोई प्रश्न नहीं रह जाता है।किस प्रकार आत्मा अविनाशी है ? अगले श्लोक में एक दृष्टांत के द्वारा इसे स्पष्ट करते हैं -- ।।2.21।।
                  English commentary by Swami Sivananda
                   The enlightened sage who knows the immutable and indestructible Self through direct cognition or spiritual Anubhava (experience) cannot do the act of slaying. He cannot cause another to slay also.


                  Wednesday, October 1, 2014

                  Chapter 2 Shloka 20

                      न जायते म्रियते वा कदाचिन् नायं भूत्वा भविता वा न भूयः । अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे ॥ २-२० ॥ न जायते म्रियते वा कदाचित् न अयम् भूत्वा भविता वा न भूयः । अजः नित्यः शाश्वतः अयम् पुराणः न हन्यते हन्यमाने शरीरे ॥ २-२० ॥ अयम् कदाचित् न जायते, न वा म्रियते, (अयम्)भूत्वा भूयः भविता वा न. अयम् अजः नित्यः शाश्वतः पुराणः, शरीरे हन्यमाने न हन्यते ।
                    na jāyate mriyate vā kadācin nāyaṁ bhūtvā bhavitā vā na bhūyaḥ ajo nityaḥ śāśvato 'yaṁ purāṇo na hanyate hanyamāne śarīre
                    Play Song
                      न = never जायते = takes birth म्रियते = dies वा = either कदाचित् = at any time (past, present or future) न = never अयं = this भूत्वा = having come into being भविता = will come to be वा = or न = not भूयः = or is again coming to be अजः = unborn नित्यः = eternal शाश्वतः = permanent अयं = this पुराणः = the oldest न = never हन्यते = is killed हन्यमाने = being killed शरीरे = the body.
                    Hindi translation by Swami Ram Sukhdasयह शरीरी न कभी जन्मता है और न मरता है। यह उत्पन्न होकर फिर होनेवाला नहीं है। यह जन्मरहित, नित्य-निरन्तर रहनेवाला, शाश्वत और पुराण (अनादि) है। शरीरके मारे जानेपर भी यह नहीं मारा जाता ।।2.20।।
                    English translation by Swami Sivananda2.20 It is not born, nor does It ever die; after having been, It again ceases not to be; unborn, eternal, changeless and ancient, It is not killed when the body is killed.  
                    Hindi commentary by Swami Ramsukhdas
                    व्याख्या -- शरीरमें छः विकार होते हैं -- उत्पन्न होना, सत्तावाला दीखना, बदलना, बढ़ना, घटना और नष्ट होना (टिप्पणी प0 60.1)। यह शरीरी इन छहों विकारोंसे रहित है -- यही बात भगवान् इस श्लोकमें बता रहे हैं (टिप्पणी प0 60.2)।न जायते म्रियते वा कदाचिन्न -- जैसे शरीर उत्पन्न होता है, ऐसे यह शरीरी कभी भी, किसी भी समयमें उत्पन्न नहीं होता। यह तो सदासे ही है। भगवान्ने इस शरीरीको अपना अंश बताते हुए इसको ' सनातन ' कहा है ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः (15। 7)।यह शरीरी कभी मरता भी नहीं। मरता वही है, जो पैदा होता है; और म्रियते का प्रयोग भी वहीं होता है, जहाँ पिण्ड-प्राणका वियोग होता है। पिण्ड-प्राणका वियोग शरीरमें होता है। परन्तु शरीरीमें संयोग-वियोग दोनों ही नहीं होते। यह ज्यों-का-त्यों ही रहता है। इसका मरना होता ही नहीं।सभी विकारोंमें जन्मना और मरना -- ये दो विकार ही मुख्य हैं; अतः भगवान्ने इनका दो बार निषेध किया है -- जिसको पहले न जायते कहा, उसीको दुबारा अजः कहा है; और जिसको पहले न म्रियते कहा, उसीको दुबारा न हन्यते हन्यमाने शरीरे कहा है।अयं भूत्वा भविता वा न भूयः -- यह अविनाशी नित्य-तत्त्व पैदा होकर फिर होनेवाला नहीं है अर्थात् यह स्वतःसिद्ध निर्विकार है। जैसे, बच्चा पैदा होता है, तो पैदा होनेके बाद उसकी सत्ता होती है। जबतक वह गर्भमें नहीं आता, तबतक ' बच्चा है ' ऐसे उसकी सत्ता (होनापन) कोई भी नहीं कहता। तात्पर्य है कि बच्चेकी सत्ता पैदा होनेके बाद होती है; क्योंकि उस विकारी सत्ताका आदि और अन्त होता है। परन्तु इस नित्य-तत्त्वकी सत्ता स्वतःसिद्ध और निर्विकार है; क्योंकि इस अविकारी सत्ताका आरम्भ और अन्त नहीं होता।अजः -- इस शरीरीका कभी जन्म नहीं होता। इसलिये यह अजः अर्थात् जन्मरहित कहा गया है।' नित्यः' -- यह शरीरी नित्य-निरन्तर रहनेवाला है, अतः इसका कभी अपक्षय नहीं होता। अपक्षय तो अनित्य वस्तुमें होता है, जो कि निरन्तर रहनेवाली नहीं है। जैसे, आधी उम्र बीतनेपर शरीर घटने लगता है, बल क्षीण होने लगता है, इन्द्रियोंकी शक्ति कम होने लगती है। इस प्रकार शरीर, इन्द्रियाँ, अन्तःकरण आदिका तो अपक्षय होता है, पर शरीरीका अपक्षय नहीं होता। इस नित्य-तत्त्वमें कभी किञ्चन्मात्र भी कमी नहीं आती।शाश्वतः -- यह नित्य-तत्त्व निरन्तर एकरूप, एकरस रहनेवाला है। इसमें अवस्थाका परिवर्तन नहीं होता अर्थात् यह कभी बदलता नहीं। इसमें बदलनेकी योग्यता है ही नहीं।पुराणः -- यह अविनाशी तत्त्व पुराण (पुराना) अर्थात् अनादि है। यह इतना पुराना है कि यह कभी पैदा हुआ ही नहीं। उत्पन्न होनेवाली वस्तुओंमें भी देखा जाता है कि जो वस्तु पुरानी हो जाती है, वह फिर बढ़ती नहीं, प्रत्युत नष्ट हो जाती है; फिर यह तो अनुत्पन्न तत्त्व है, इसमें बढ़नारूप विकार कैसे हो सकता है? तात्पर्य है कि बढ़नारूप विकार तो उत्पन्न होनेवाली वस्तुओंमें ही होता है, इस नित्य-तत्त्वमें नहीं।न हन्यते हन्यमाने शरीरे -- शरीरका नाश होनेपर भी इस अविनाशी शरीरीका नाश नहीं होता। यहाँ शरीरे पद देनेका तात्पर्य है कि यह शरीर नष्ट होनेवाला है। इस नष्ट होनेवाले शरीरमें ही छः विकार होते हैं, शरीरीमें नहीं।इन पदोंमें भगवान्ने शरीर और शरीरीका जैसा स्पष्ट वर्णन किया है, ऐसा स्पष्ट वर्णन गीतामें दूसरी जगह नहीं आया है।अर्जुन युद्धमें कुटुम्बियोंके मरनेकी आशंकासे विशेष शोक कर रहे थे। उस शोकको दूर करनेके लिये भगवान् कहते हैं कि शरीरके मरनेपर भी इस शरीरीका मरना नहीं होता अर्थात् इसका अभाव नहीं होता। इसलिये शोक करना अनुचित है।सम्बन्ध -- उन्नीसवें श्लोकमें भगवान्ने बताया कि यह शरीरी न तो मारता है और न मरता ही है। इसमें मरनेका निषेध तो बीसवें श्लोकमें कर दिया, अब मारनेका निषेध करनेके लिये आगेका श्लोक कहते हैं ।।2.20।।

                    Hindi commentary by Swami Chinmayananda 
                    इस श्लोक में बताया गया है कि शरीर में होने वाले समस्त विकारों से आत्मा परे है। जन्म, अस्तित्व, वृद्धि, विकार, क्षय और नाश ये छ: प्रकार के परिर्वतन शरीर में होते हैं, जिनके कारण जीव को कष्ट भोगना पड़ता है। एक र्मत्य शरीर के लिये इन समस्त दु:ख के कारणों का आत्मा के लिये निषेध किया गया है अर्थात् आत्मा इन विकारों से सर्वथा मुक्त है।शरीर के समान आत्मा का जन्म नहीं होता, क्योंकि वह तो सर्वदा ही विद्यमान है। तरंगों की उत्पत्ति होती है, और उनका नाश होता है, परन्तु उनके साथ न तो समुद्र की उत्पत्ति होती है और न ही नाश। जिसका आदि है उसी का अन्त भी होता है। उत्ताल तरंगे ही मृत्यु की अन्तिम श्वांस लेती हैं। सर्वदा विद्यमान आत्मा के जन्म और
                  English commentary by Swami Sivananda This Self (Atman) is destitute of the six types of transformation or Bhava-Vikaras such as birth, existence, growth, transformation, decline and death. As It is indivisible (Akhanda). It does not diminish in size. It neither grows nor does It decline. It is ever the same. Birth and death are for the physical body only. Birth and death cannot touch the immortal, all-pervading Self. 



                  Sunday, July 27, 2014

                  Chapter 2 Shloka 19

                    य एनं वेत्ति हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम् उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते ||२-१९|| यः एनम् वेत्ति हन्तारम् यः च एनम् मन्यते हतम् उभौ तौ न विजानीतः न अयम् हन्ति न हन्यते ||२-१९|| यः एनम् हन्तारम् वेत्ति, यः च एनम् हतम् मन्यते तौ उभौ न विजानीतः, अयम् न हन्ति न हन्यते |


                    ya enaṁ vetti hantāraṁ yaś cainaṁ manyate hatam ubhau tau na vijānīto nāyaṁ hanti na hanyate
                  Play Song
                    यः = anyone who एनं = this वेत्ति = knows हन्तारं = the killer यः = anyone who च = also एनं = this मन्यते = thinks हतं = killed उभौ = both तौ = they न = never विजानीताः = are in knowledge न = never अयं = this हन्ति = kills न = nor हन्यते = is killed.

                    Hindi translation by Swami Ram Sukhdas
                    जो मनुष्य इस अविनाशी शरीरीको मारनेवाला मानता है और जो मनुष्य इसको मरा मानता है, वे दोनों ही इसको नहीं जानते; क्योंकि यह न मारता है और न मारा जाता है ।।2.19।।
                    English translation by Swami Sivananda2.19 He who takes the Self to be the slayer and he who thinks It is slain, neither of them knows. It slays not, nor is It slain.
                    Hindi commentary by Swami Ramsukhdas
                    व्याख्या -- य एनं (टिप्पणी प0 59) वेत्ति हन्तारम् -- जो इस शरीरीको मारनेवाला मानता है; वह ठीक नहीं जानता। कारण कि शरीरीमें कर्तापन नहीं है। जैसे कोई भी कारीगर कैसा ही चतुर क्यों न हो, पर किसी औजारके बिना वह कार्य नहीं कर सकता, ऐसे ही यह शरीरी शरीरके बिना स्वयं कुछ भी नहीं कर सकता। अतः तेरहवें अध्यायमें भगवान्ने कहा है कि सब प्रकारकी क्रियाएँ प्रकृतिके द्वारा ही होती हैं -- ऐसा जो अनुभव करता है, वह शरीरीके अकर्तापनका अनुभव करता है (13। 29)। तात्पर्य यह हुआ है कि शरीरमें कर्तापन नहीं है, पर यह शरीरके साथ तादात्म्य करके, सम्बन्ध जोड़कर शरीरसे होनेवाले क्रियाओंमें अपनेको कर्ता मान लेता है। अगर यह शरीरके साथ अपना सम्बन्ध न जोड़े, तो यह किसी भी क्रियाका कर्ता नहीं है।यश्चैनं मन्यते हतम् -- जो इसको मरा मानता है, वह भी ठीक नहीं जानता। जैसे यह शरीरी मारनेवाला नहीं है, ऐसे ही यह मरनेवाला भी नहीं है; क्योंकि इसमें कभी कोई विकृति नहीं आती। जिसमें विकृति आती है, परिवर्तन होता है अर्थात् जो उत्पत्ति-विनाशशील होता है, वही मर सकता है।उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते -- वे दोनों ही नहीं जानते अर्थात् जो इस शरीरीको मारनेवाला मानता है, वह भी ठीक नहीं जानता और जो इसको मरनेवाला मानता है, वह भी ठीक नहीं जानता।यहाँ प्रश्न होता है कि जो इस शरीरीको मारनेवाला और मरनेवाला दोनों मानता है, क्या वह ठीक जानता है? इसका उत्तर है कि वह भी ठीक नहीं जानता। कारण कि यह शरीरी वास्तवमें ऐसा नहीं है। यह नाश करनेवाला भी नहीं है और नष्ट होनेवाला भी नहीं है। यह निर्विकाररूपसे नित्य-निरन्तर ज्यों-का-त्यों रहनेवाला है। अतः इस शरीरीको लेकर शोक नहीं करना चाहिये।अर्जुनके सामने युद्धका प्रसंग होनेसे ही यहाँ शरीरीको मरने-मारनेकी क्रियासे रहित बताया गया है। वास्तवमें यह सम्पूर्ण क्रियाओंसे रहित है।सम्बन्ध -- यह शरीरी मरनेवाला क्यों नहीं है? इसके उत्तरमें कहते हैं -- ।।2.19।।
                    Hindi commentary by Swami Chinmayananda 
                    आत्मा नित्य अविकारी होने से न मारी जाती है और न ही वह किसी को मारती है । शरीर के नाश होने से जो आत्मा को मरी मानने हैं या जो उसको मारने वाली समझते हैं, वे दोनों ही आत्मा के वास्तविक स्वरूप को नहीं जानते और व्यर्थ का विवाद करते हैं। जो मरता है वह शरीर है और "मैं मारने वाला हूँ " यह भाव अहंकारी जीव का है। शरीर और अहंकार को प्रकाशित करने वाली चैतन्य आत्मा दोनों से भिन्न है। संक्षेप में इसका तात्पर्य यह है कि आत्मा न किसी क्रिया का कर्त्ता है और न किसी क्रिया का विषय अर्थात् उस पर किसी प्रकार की क्रिया नहीं की जा सकती।आत्मा किस प्रकार अविकारी है ? इसका उत्तर अगले श्लोक में दिया गया है ।।2.19।।
                  English commentary by Swami SivanandaThe Self is non-doer (Akarta) and as It is immutable, It is neither the agent nor the object of the act of slaying. He who thinks "I slay" or "I am slain" with the body or the Ahamkara (ego), he does not really comprehend the true nature of the Self. The Self is indestructible. It exists in the three periods of time. It is Sat (Existence). When the body is destroyed, the Self is not destroyed. The body has to undergo change in any case. It is inevitable. But the Self is not at all affected by it. Verses 19, 20, 21, 23 and 24 speak of the immortality of the Self or Atman. 




                  Monday, July 21, 2014

                  Chapter 2 Shloka 18

                    अन्तवन्त इमे देहा नित्यस्योक्ताः शरीरिणः | अनाशिनोऽप्रमेयस्य तस्माद्युध्यस्व भारत ||२-१८|| अन्तवन्तः इमे देहाः नित्यस्य उक्ताः शरीरिणः | अनाशिनः अप्रमेयस्य तस्मात् युध्यस्व भारत ||२-१८|| अनाशिनः अप्रमेयस्य नित्यस्य शरीरिणः इमे देहाः अन्तवन्तः उक्ताः | हे भारत!तस्मात् युध्यस्व |


                    antavanta ime dehā nityasyoktāḥ śarīriṇaḥ anāśino 'prameyasya tasmād yudhyasva bhārata
                  Play Song
                    अन्तवन्तः = perishable इमे = all these देहाः = material bodies नित्यस्य = eternal in existence उक्ताः = are said शरीरिणः = of the embodied soul अनाशिनः = never to be destroyed अप्रमेयस्य = immeasurable तस्मात् = therefore युध्यस्व = fight भारत = O descendant of Bharata.

                    Hindi translation by Swami Ram Sukhdas
                    अविनाशी, अप्रमेय और नित्य रहनेवाले इस शरीरके ये देह अन्तवाले कहे गये हैं। इसलिये हे अर्जुन! तुम युद्ध करो ।।2.18।।
                    English translation by Swami Sivananda
                    2.18 These bodies of the embodied Self, Which is eternal, indestructible and immeasurable, are said to have an end. Therefore fight, O Arjuna. 
                    Hindi commentary by Swami Ramsukhdas
                    व्याख्या -- अनाशिनः -- किसी कालमें, किसी कारणसे कभी किञ्चिन्मात्र भी जिसमें परिवर्तन नहीं होता, जिसकी क्षति नहीं होती, जिसका अभाव नहीं होता, उसका नाम अनाशी अर्थात् अविनाशी है।अप्रमेयस्य -- जो प्रमा-(प्रमाण-)का विषय नहीं है अर्थात् जो अन्तःकरण और इन्द्रियोंका विषय नहीं है, उसको ' अप्रमेय ' कहते हैं।जिसमें अन्तःकरण और इन्द्रियाँ प्रमाण नहीं होतीं, उसमें शास्त्र और सन्त-महापुरुष ही प्रमाण होते हैं, शास्त्र और सन्त-महापुरुष उन्हींके लिये प्रमाण होते हैं, जो श्रद्धालु हैं। जिसकी जिस शास्त्र और सन्तमें श्रद्धा होती है, वह उसी शास्त्र और सन्तके वचनोंको मानता है। इसलिये यह तत्त्व केवल श्रद्धाका विषय है (टिप्पणी प0 58.1), प्रमाणका विषय नहीं।शास्त्र और सन्त किसीको बाध्य नहीं करते कि तुम हमारेमें श्रद्धा करो। श्रद्धा करने अथवा न करनेमें मनुष्य स्वतन्त्र है। अगर वह शास्त्र और सन्तके वचनोंमें श्रद्धा करेगा, तो यह तत्त्व उसकी श्रद्धाका विषय है; और अगर वह श्रद्धा नहीं करेगा, तो यह तत्त्व उसकी श्रद्धाका विषय नहीं है।नित्यस्य -- यह नित्य-निरन्तर रहनेवाला है। किसी कालमें यह न रहता हो -- ऐसी बात नहीं है अर्थात् यह सब कालमें सदा ही रहता है।अन्तवन्त इमे देहा उक्ताः शरीरिणः -- इस अविनाशी, अप्रमेय और नित्य शरीरीके सम्पूर्ण संसारमें जितने भी शरीर हैं, वे सभी अन्तवाले कहे गये हैं। अन्तवाले कहनेका तात्पर्य है कि इनका प्रतिक्षण अन्त हो रहा है। इनमें अन्तके सिवाय और कुछ है ही नहीं, केवल अन्त-ही-अन्त है।उपर्युक्त पदोंमें शरीरीके लिये तो एकवचन दिया है और शरीरोंके लिये बहुवचन दिया है। इसका एक कारण तो यह है कि प्रत्येक प्राणीके स्थूल, सूक्ष्म और कारण -- ये तीन शरीर होते हैं। दूसरा कारण यह है कि संसारके सम्पूर्ण शरीरोंमें एक ही शरीरी व्याप्त है। आगे चौबीसवें श्लोकमें भी इसको सर्वगतः पदसे सबमें व्यापक बतायेंगे। यह शरीरी तो अविनाशी है और इसके कहे जानेवाले सम्पूर्ण शरीर नाशवान् हैं। जैसे अविनाशीका कोई विनाश नहीं कर सकता, ऐसे ही नाशवान्को कोई अविनाशी नहीं बना सकता। नाशवान्का तो विनाशीपना ही नित्य रहेगा अर्थात् उसका तो नाश ही होगा।विशेष बातयहाँ अन्तवन्त इमे देहाः कहनेका तात्पर्य है कि ये जो देह देखनेमें आते हैं, ये सब-के-सब नाशवान् हैं। पर ये देह किसके हैं? नित्यस्य, अनाशिनः -- ये देह नित्यके हैं, अविनाशीके हैं। तात्पर्य है कि नित्य-तत्त्वने, जिसका कभी नाश नहीं होता, इनको अपना मान रखा है। अपना माननेका अर्थ है कि अपनेको शरीरमें रख दिया और शरीरको अपनेमें रख लिया। अपनेको शरीरमें रखनेसे ' अहंता ' अर्थात् ' मैं'-पन पैदा हो गया और शरीरको अपनेमें रखनेसे ' ममता ' अर्थात् ' मेरा'-पन पैदा हो गया।यह स्वयं जिन-जिन चीजोंमें अपनेको रखता चला जाता है, उन-उन चीजोंमें ' मैं'-पन होता ही चला जाता है; जैसे -- अपनेको धनमें रख दिया तो ' मैं धनी हूँ '; अपनेको राज्यमें रख दिया तो ' मैं राजा हूँ '; अपनेको विद्यामें रख दिया तो ' मैं विद्वान् हूँ '; अपनेको बुद्धिमें रख दिया तो ' मैं बुद्धिमान् हूँ '; अपनेको सिद्धियों में ख दिया तो ' मैं सिद्ध हूँ '; अपनेको शरीरमें रख दिया तो ' मैं शरीर हूँ '; आदि-आदि।यह स्वयं जिन-जिन चीजोंको अपनेमें रखता चला जाता है, उन-उन चीजोंमें ' मेरा'-पन होता ही चला जाता है; जैसे -- कुटुम्बको अपनेमें रख लिया तो ' कुटुम्ब मेरा है '; धनको अपनेमें रख लिया तो ' धन मेरा है '; बुद्धिको अपनेमें रख लिया तो' बुद्धि मेरी है; शरीरको अपनेमें रख लिया तो ' शरीर मेरा है '; आदि-आदि।जडताके साथ ' मैं' और ' मेरा ' -पन होनेसे ही मात्र विकार पैदा होते हैं। तात्पर्य है कि शरीर और मैं (स्वयं) -- दोनों अलग-अलग हैं, इस विवेकको महत्त्व न देनेसे ही मात्र विकार पैदा होते हैं। परन्तु जो इस विवेकको आदर देते हैं, महत्व देते हैं वे पण्डित होते हैं। ऐसे पण्डितलोग कभी शोक नहीं करते; क्योंकि सत् सत् ही है और असत् असत् ही है -- इसका उनको ठीक अनुभव हो जाता है।तस्मात् (टिप्पणी प0 58.2) युध्यस्व -- भगवान् अर्जुनके लिये आज्ञा देते हैं कि सत्-असत्को ठीक समझकर तुम युद्ध करो अर्थात् प्राप्त कर्तव्यका पालन करो। तात्पर्य है कि शरीर तो अन्तवाला है और शरीरी अविनाशी है। इन दोनों -- शरीर-शरीरीकी दृष्टिसे शोक बन ही नहीं सकता। अतः शोकका त्याग करके युद्ध करो।विशेष बातयहाँ सत्रहवें और अठारहवें -- इन दोनों श्लोकोंमें विशेषतासे सत्-तत्त्वका ही विवेचन हुआ है। कारण कि इस पूरे प्रकरणमें भगवान्का लक्ष्य सत्का बोध करानेमें ही है। सत्का बोध हो जानेसे असत्की निवृत्ति स्वतः हो जाती है। फिर किसी प्रकारका किञ्चिन्मात्र भी सन्देह नहीं रहता। इस प्रकार सत्का अनुभव करके निःसंदिग्ध होकर कर्तव्यका पालन करना चाहिये। इस विवेचनसे यह बात सिद्ध होती है कि सांख्ययोग एवं कर्मयोगमें किसी विशेष वर्ण और आश्रमकी आवश्यकता नहीं है। अपने कल्याणके लिये चाहे सांख्ययोगका अनुष्ठान करे, चाहे कर्मयोगका अनुष्ठान करे, इसमें मनुष्यकी पूर्ण स्वतन्त्रता है। परन्तु व्यावहारिक काम करनेमें वर्ण और आश्रमके अनुसार शास्त्रीय विधानकी परम आवश्यकता है, तभी तो यहाँ सांख्ययोगके अनुसार सत्-असत्का विवेचन करते हुए भगवान् युद्ध करनेकी अर्थात् कर्तव्य-कर्म करनेकी आज्ञा देते हैं।आगे तेरहवें अध्यायमें जहाँ ज्ञानके साधनोंका वर्णन किया गया है, वहाँ भी असक्तिरनभिष्वङ्गः पुत्रदार-गृहादिषु (13। 9) कहकर पुत्र, स्त्री, घर आदिकी आसक्तिका निषेध किया है। अगर संन्यासी ही सांख्ययोगके अधिकारी होते तो पुत्र, स्त्री, घर आदिमें आसक्तिरहित होनेके लिये कहनेकी आवश्यकता ही नहीं थी; क्योंकि संन्यासीके पुत्र-स्त्री आदि होते ही नहीं।इस तरह गीतापर विचार करनेसे सांख्ययोग एवं कर्मयोग -- दोनों परमात्मप्राप्तिके स्वतन्त्र साधन सिद्ध हो जाते हैं। ये किसी वर्ण और आश्रमपर किञ्चिन्मात्र भी अवलम्बित नहीं हैं।सम्बन्ध -- पूर्वश्लोकतक शरीरीको अविनाशी जाननेवालोंकी बात कही। अब उसी बातको अन्वय और व्यतिरेकरीतिसे दृढ़ करनेके लिये, जो शरीरीको अविनाशी नहीं जानते, उनकी बात आगेके श्लोकमें कहते हैं ।।2.18।। भारतीय दर्शन हमारे पांच शरीर मानता है । पश्चिम का दर्शन सिर्फ भौतिक शरीर मानता है । इस आधार पर वह तनाव जनित रोगों का समाधान नहीं खोज पाया । लेकिन योग हमारे भौतिक शरीर का कारण सुक्ष्म शरीरों का मानता है, जिनमे चिकित्सा कर स्थूल शरीर को ठीक किया जाने लगा । आसन, क्रिया, सूक्ष्म व्यायाम, भौतिक आहार से स्थूल शरीर संतुलित किया जाता है । प्राणायाम व श्वसन क्रियाओं द्वारा प्राण शरीर को मुक्त किया जाता है । हमारी चाहतें व ईष्र्या मनोमय शरीर में होती है । हमारी भावनाओं को ऊंचाकर, भक्ति व समर्पण द्वारा इसे संतुलित किया जाता है । प्रार्थना, मन्त्रोचारण, जप द्वारा भावनाओं को परिष्कृत किया जा सकता है । विवेक को उत्पन्न कर विज्ञानमय शरीर को जीता जा सकता है । दृष्टा होकर पांचवे कोश में जीआ जाता है । http://uthojago.wordpress.com/2013/07/19/%E0%A4%AF%E0%A5%8B%E0%A4%97-%E0%A4%95%E0%A5%87-%E0%A4%85%E0%A4%A8%E0%A5%81%E0%A4%B8%E0%A4%BE%E0%A4%B0-%E0%A4%B9%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%BE-%E0%A4%A8%E0%A4%BF%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%AE-2/
                    Hindi commentary by Swami Chinmayananda 
                    आत्मा द्वारा धारण किये हुये भौतिक शरीर नाशवान् हैं जबकि आत्मा नित्य, अविनाशी और अप्रमेय अर्थात् बुद्धि के द्वारा जानी नहीं जा सकती। यहाँ आत्मा नित्य और अविनाशी है, ऐसा कहने का अभिप्राय यह है कि आत्मा का न पूर्णत: नाश होता है और न अंशत:।नित्य आत्मतत्त्व को 'अज्ञेय' कहा है जिसका अर्थ यह नहीं कि वह 'अज्ञात' है। इसका तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार हम इन्द्रियों के द्वारा विषयों को जानते हैं, उस प्रकार इस आत्मा को नहीं जाना जा सकता। इसका कारण यह है कि इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि आदि हमारे ज्ञान प्राप्ति के साधन हैं ; वे स्वत: जड़ हैं और चैतन्य आत्मा की उपस्थिति में ही वे अन्य वस्तुओं को प्रकाशित कर सकते हैं। अब जिस चैतन्य के कारण इन्द्रियाँ आदि उपकरण विषयों को ग्रहण करने में समर्थ होते हैं, तब उसी चैतन्य को वे प्रत्यक्ष विषय के रूप में किस प्रकार जान सकते हैं ? यह सर्वथा असम्भव है और इसी दृष्टि से यहाँ आत्मा को 'अज्ञेय' कहा गया है। आत्मा स्वत: सिद्ध है।इसलिये, हे भारत ! तुम युद्ध करो- वास्तव में, इस वाक्य के द्वारा सबको युद्ध करने का आदेश नहीं दिया गया है। जिस धर्म की आधारशिला क्षमा और उदार सहिष्णुता है, उसी धर्म के शास्त्रीय ग्रन्थों में इस प्रकार का युद्ध का नारा संभव नहीं हो सकता। कोई टीकाकार यदि ऐसा अर्थ करता है, तो वह अनुचित है और वह गीता को महाभारत के सन्दर्भ में नहीं पढ़ रहा है। "हे भारत ! तुम युद्ध करो" ये शब्द धर्म का आह्वान है प्रत्येक व्यक्ति के लिये, जिससे वह पराजय की प्रवृत्ति को छोड़कर जीवन में आने वाली प्रत्येक परिस्थिति का निष्ठापूर्वक और साहस के साथ सामना करे। "अधर्म का सक्रिय प्रतिकार " यह गीता में श्रीकृष्ण का मुख्य संदेश है।अब आगे भगवान् उपनिषदों के दो मन्त्र सिद्ध करने के लिये उद्धृत करते हैं कि शास्त्र का मुख्य प्रयोजन संसार के मूल कारण मोह - अविद्या की निवृत्ति करना है। भगवान् कहते हैं , "यह तुम्हारी मिथ्या धारणा है कि 'भीष्म और द्रोण मेरे द्वारा मारे जायेंगे और मैं उनका हत्यारा बनूँगा'..." कैसे ? ।।2.18।।
                  English commentary by Swami Sivananda
                  Lord Krishna explains to Arjuna the nature of the all-pervading, immortal Self in a variety of ways and thus induces him to fight by removing his delusion, grief and despondency which are born of ignorance. 





                  Monday, July 14, 2014

                  Chapter 2 Shloka 17

                          अविनाशि तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम् | विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित्कर्तुमर्हति ||२-१७|| अविनाशि तु तत् विद्धि येन सर्वम् इदम् ततम् | विनाशम् अव्ययस्य अस्य न कश्चित् कर्तुम् अर्हति ||२-१७|| विद्धि, येन इदम् सर्वम् ततम्, तत् तु अविनाशि | अस्य अव्ययस्य विनाशम् कर्तुम्, कश्चित् न अर्हति |
                        avināśi tu tad viddhi
                        yena sarvam idaṁ tatam
                        vināśam avyayasyāsya
                        na kaścit kartum arhati
                          अविनाशि = imperishable तु = but तत् = that विद्धि = know it येन = by whom सर्वं = all of the body इदं = this ततं = pervaded विनाशं = destruction अव्ययस्य = of the imperishable अस्य = of it न कश्चित् = no one कर्तुं = to do अर्हति = is able.

                        Hindi translation by Swami Ram Sukhdas
                        अविनाशी तो उसको जान, जिससे यह सम्पूर्ण संसार व्याप्त है। इस अविनाशीका विनाश कोई भी नहीं कर सकता ।।2.17।।
                        English translation by Swami Sivananda
                        2.17 Know that to be indestructible, by Which all this is pervaded. None can cause the destruction of That, the Imperishable. 
                        Hindi commentary by Swami Ramsukhdas
                        व्याख्या -- अविनाशि तु तद्विद्धि -- पूर्वश्लोकमें जो सत्-असत्की बात कही थी, उसमेंसे पहले सत्की व्याख्या करनेके लिये यहाँ तु पद आया है।' उस अविनाशी तत्त्वको तू समझ ' -- ऐसा कहकर भगवान्ने उस तत्वको परोक्ष बताया है। परोक्ष बतानेमें तात्पर्य है कि इदंतासे दीखनेवाले इस सम्पूर्ण संसारमें वह परोक्ष तत्त्व ही व्याप्त है, परिपूर्ण है। वास्तवमें जो परिपूर्ण है, वही ' है ' और जो सामने संसार दीख रहा है, यह ' नहीं ' है।यहाँ तत् पदसे सत्-तत्त्वको परोक्षरीतिसे कहनेका तात्पर्य यह नहीं है कि वह तत्त्व बहुत दूर है; किन्तु वह इन्द्रियों और अन्तःकरणका विषय नहीं है, इसलिये उसको परोक्षरीतिसे कहा गया है।येन सर्वमिदं ततम् (टिप्पणी प0 57.1) -- जिसको परोक्ष कहा है, उसीका वर्णन करते हैं कि यह सब-का-सब संसार उस नित्य-तत्त्वसे व्याप्त है। जैसे सोनेसे बने हुए गहनोंमें सोना, लोहेसे बने हुए अस्त्र-शस्त्रोंमें लोहा, मिट्टीसे बने हुए बर्तनोंमें मिट्टी और जलसे बनी हुई बर्फमें जल ही व्याप्त (परिपूर्ण) है, ऐसे ही संसारमें वह सत्-तत्त्व ही व्याप्त है। अतः वास्तवमें इस संसारमें वह सत्-तत्त्व ही जाननेयोग्य है।विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित्कर्तुमर्हति -- यह शरीरी अव्यय (टिप्पणी प0 57.2) अर्थात् अविनाशी है। इस अविनाशीका कोई विनाश कर ही नहीं सकता। परन्तु शरीर विनाशी है -- क्योंकि वह नित्य-निरन्तर विनाशकी तरफ जा रहा है। अतः इस विनाशीके विनाशको कोई रोक ही नहीं सकता। तू सोचता है कि मैं युद्ध नहीं करूँगा तो ये नहीं मरेंगे, पर वास्तवमें तेरे युद्ध करनेसे अथवा न करनेसे इस अविनाशी और विनाशी तत्त्वमें कुछ फरक नहीं पड़ेगा अर्थात् अविनाशी तो रहेगा ही और विनाशीका नाश होगा ही।यहाँ अस्य पदसे सत्-तत्त्वको इदंतासे कहनेका तात्पर्य है कि प्रतिक्षण बदलनेवाले शरीरोंमें जो सत्ता दीखती है, वह इसी सत्-तत्त्वकी ही है। ' मेरा शरीर है और मैं शरीरधारी हूँ' -- ऐसा जो अपनी सत्ताका ज्ञान है, उसीको लक्ष्य करके भगवान्ने यहाँ अस्य पद दिया है ।।2.17।।
                        Hindi commentary by Swami Chinmayananda 
                        समस्त जगत् को जो व्याप्त किये हुये है और इस दृश्यमान अनुभव में आने वाले जगत् का जो अधिष्ठान है, वह सत् है। मिट्टी के बने अनेक प्रकार के पात्र होते हैं, जिनके, विभिन्न उपयोगों के कारण अथवा उनमें रखी वस्तुओं के कारण उनके विभिन्न नाम होते हैं, परंतु विविध आकारों के होने पर भी वे सब एक मिट्टी के ही बने होते हैं, जो सब आकारों में व्याप्त होती है और जिसके बिना किसी भी पात्र का अस्तित्व सिद्ध नहीं हो सकता। उन सब की उत्पत्ति, स्थिति और लय मिट्टी में ही है। अत: उनमें मिट्टी ही वास्तव में सत्य है।इसी प्रकार, यह नित्य परिवर्तनशील जगत् नित्य अविनाशी तत्त्व से व्याप्त है और भगवान् कहते हैं कि इस तत्त्व का विनाश कदापि सम्भव नहीं है।तब फिर असत् क्या है जिसका अस्तित्व नित्य नहीं है ? सुनो -- ।।2.17।।

                        English commentary by Swami Sivananda
                        The changeless, homogeneous Atman or the Self always exists. It is the only solid Reality. This phenomenal world of names and forms is ever changing. Hence it is unreal. The sage or the Jivanmukta is fully aware that the Self always exists and that this world is like a mirage. Through his Jnanachakshus or the eye of intuition, he directly cognises the Self. This world vanishes for him like the snake in the rope, after it has been seen that only the rope exists. He rejects the names and forms and takes the underlying Essence in all the names and forms, viz., Asti-Bhati-Priya or Satchidananda or Existence-Knowledge-Bliss Absolute. Hence he is a Tattvadarshi or a knower of the Truth or the Essence.What is changing must be unreal. What is constant or permanent must be real. 


                  Saturday, July 5, 2014

                  Chapter 2 Shloka 16

                    नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः | उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभिः ||२-१६|| न असतः विद्यते भावः न अभावः विद्यते सतः | उभयोः अपि दृष्टः अन्तः तु अनयोः तत्त्व-दर्शिभिः ||२-१६|| असतः भावः न विद्यते सतः अभावः न विद्यते | तत्त्व-दर्शिभिः तु उभयोः अपि अनयोः अन्तः दृष्टः |
                    nāsato vidyate bhāvo nābhāvo vidyate sataḥ ubhayor api dṛṣṭo 'ntas tvanayos tattva-darśibhiḥ न = never असतः = of the nonexistent विद्यते = there is भावः = endurance न = never अभावः = changing quality विद्यते = there is सतः = of the eternal उभयोः = of the two अपि = verily दृष्टः = observed अन्तः = conclusion तु = indeed अनयोः = of them तत्त्व = of the truth दर्शिभिः = by the seers.

                    Hindi translation by Swami Ram Sukhdas
                    (टिप्पणी प0 55) असत्का तो भाव (सत्ता) विद्यमान नहीं है और सत्का अभाव विद्यमान नहीं है, तत्त्वदर्शी महापुरुषोंने इन दोनोंका ही अन्त अर्थात् तत्त्व देखा है ।।2.16।।
                    English translation by Swami Sivananda
                    2.16 The unreal hath no being; there is non-being of the real; the truth about both has been seen by the knowers of the Truth (or the seers of the Essence). 
                    Hindi commentary by Swami Ramsukhdas
                    व्याख्या -- नासतो विद्यते भावः -- शरीर उत्पत्तिके पहले भी नहीं था, मरनेके बाद भी नहीं रहेगा और वर्तमानमें भी इसका क्षण-प्रतिक्षण अभाव हो रहा है। तात्पर्य है कि यह शरीर भूत, भविष्य और वर्तमान -- इन तीनों कालोंमें कभी भावरूपसे नहीं रहता। अतः यह असत् है। इसी तरहसे इस संसारका भी भाव नहीं है, यह भी असत् है। यह शरीर तो संसारका एक छोटा-सानमूना है; इसलिये शरीरके परिवर्तनसे संसारमात्रके परिवर्तनका अनुभव होता है कि इस संसारका पहले भी अभाव था और पीछे भी अभाव होगा तथा वर्तमानमें भी अभाव हो रहा है।संसारमात्र कालरूपी अग्निमें लकड़ीकी तरह निरन्तर जल रहा है। लकड़ीके जलनेपर तो कोयला और राख बची रहती है, पर संसारको कालरूपी अग्नि ऐसी विलक्षण रीतिसे जलाती है कि कोयला अथवा राख कुछ भी बाकी नहीं रहता। वह संसारका अभाव-ही-अभाव कर देती है। इसलिये कहा गया है कि असत्की सत्ता नहीं है।नाभावो विद्यते सतः -- जो सत् वस्तु है, उसका अभाव नहीं होता अर्थात् जब देह उत्पन्न नहीं हुआ था, तब भी देही था, देह नष्ट होनेपर भी देही रहेगा और वर्तमानमें देहके परिवर्तनशील होनेपर भी देही उसमें ज्यों-का-त्यों ही रहता है। इसी रीतिसे जब संसार उत्पन्न नहीं हुआ था, उस समय भी परमात्मतत्त्व था, संसारका अभाव होनेपर भी परमात्मतत्त्व रहेगा और वर्तमानमें संसारके परिवर्तनशील होनेपर भी परमात्मतत्त्व उसमें ज्यों-का-त्यों ही है।मार्मिक बात संसारको हम एक ही बार देख सकते हैं, दूसरी बार नहीं। कारण कि संसार प्रतिक्षण परिवर्तनशील है; अतः एक क्षण पहले वस्तु जैसी थी, दूसरे क्षणमें वह वैसी नहीं रहती, जैसे -- सिनेमा देखते समय परदेपर दृश्य स्थिर दीखता है; पर वास्तवमें उसमें प्रतिक्षण परिवर्तन होता रहता है। मशीनपर फिल्म तेजीसे घूमनेके कारण वह परिवर्तन इतनी तेजीसे होता है कि उसे हमारी आँखें नहीं पकड़ पातीं (टिप्पणी प0 56.1)। इससे भी अधिक मार्मिक बात यह है कि वास्तवमें संसार एक बार भी नहीं दीखता। कारण कि शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदि जिन करणोंसे हम संसारको देखते हैं -- अनुभव करते हैं, वे करण भी संसारके ही हैं। अतः वास्तवमें संसारसे ही संसार दीखता है। जो शरीर-संसारसे सर्वथा सम्बन्ध-रहित है, उस स्वरूपसे संसार कभी दीखता ही नहीं! तात्पर्य यह है कि स्वरूपमें संसारकी प्रतीति नहीं है। संसारके सम्बन्धसे ही संसारकी प्रतीति होती है। इससे सिद्ध हुआ कि स्वरूपका संसारसे कोई सम्बन्ध है ही नहीं।दूसरी बात, संसार (शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि) की सहायताके बिना चेतन-स्वरूप कुछ कर ही नहीं सकता। इससे सिद्ध हुआ कि मात्र क्रिया संसारमें ही है, स्वरूपमें नहीं। स्वरूपका क्रियासे कोई सम्बन्ध है ही नहीं।संसारका स्वरूप है -- क्रिया और पदार्थ। जब स्वरूपका न तो क्रियासे और न पदार्थसे ही कोई सम्बन्ध है, तब यह सिद्ध हो गया कि शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धि-सहित सम्पूर्ण संसारका अभाव है। केवल परमात्मतत्त्वका ही भाव (सत्ता) है, जो निर्लिप्तरूपसे सबका प्रकाशक और आधार है।उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभिः -- इन दोनोंके अर्थात् सत्-असत्, देही-देहके तत्त्वको जाननेवाले महापुरुषोंने इनका तत्त्व देखा है, इनका निचोड़ निकाला है कि केवल एक सत्-तत्त्व ही विद्यमान है।असत् वस्तुका तत्त्व भी सत् है और सत् वस्तुका तत्त्व भी सत् है अर्थात् दोनोंका तत्त्व एक ' सत् ' ही है, दोनोंका तत्त्व भावरूपसे एक ही है। अतः सत् और असत् -- इन दोनोंके तत्त्वको जाननेवाले महापुरुषोंके द्वारा जाननेमें आनेवाला एक सत्-तत्त्व ही है। असत्की जो सत्ता प्रतीत होती है, वह सत्ता भी वास्तवमें सत्की ही है। सत्की सत्तासे ही असत् सत्तावान् प्रतीत होता है। इसी सत्को परा प्रकृति (गीता 7। 5), क्षेत्रज्ञ (गीता 13। 1-2), पुरुष (गीता 13। 19) और अक्षर (गीता 15। 16) कहा गया है; तथा असत्को अपरा प्रकृति, क्षेत्र, प्रकृति और क्षर कहा गया है।अर्जुन भी शरीरोंको लेकर शोक कर रहे हैं कि युद्ध करनेसे ये सब मर जायँगे। इसपर भगवान् कहते हैं कि क्या युद्ध न करनेसे ये नहीं मरेंगे? असत् तो मरेगा ही और निरन्तर मर ही रहा है। परन्तु इसमें जो सत्-रूपसे है, उसका कभी अभाव नहीं होगा। इसलिये शोक करना तुम्हारी बेसमझी ही है।ग्यारहवें श्लोकमें आया है कि जो मर गये हैं और जो जी रहे हैं, उन दोनोंके लिये पण्डितजन शोक नहीं करते। बारहवें-तेरहवें श्लोकोंमें देहीकी नित्यताका वर्णन है उसमें धीर शब्द आया है। चौदहवें-पंद्रहवें श्लोकोंमें संसारकी अनित्यताका वर्णन आया है, तो उसमें भी धीर शब्द आया है। ऐसे ही यहाँ (सोलहवें श्लोकमें) सत्-असत्का विवेचन आया है, तो इसमें तत्त्वदर्शी (टिप्पणी प0 56.2) शब्द आया है। इन श्लोकोंमें पण्डित, धीर और तत्त्वदर्शी पद देनेका तात्पर्य है कि जो विवेकी होते हैं, समझदार होते हैं, उनको शोक नहीं होता। अगर शोक होता है, तो वे विवेकी नहीं हैं, समझदार नहीं हैं।सम्बन्ध -- सत् और असत् क्या है -- इसको आगेके दो श्लोकोंमें बताते हैं ।।2.16।।
                    Hindi commentary by Swami Chinmayananda 
                    वेदान्त शास्त्र में सत् -असत् का विवेक अत्यन्त वैज्ञानिक पद्धति से किया गया है। हमारे दर्शनशास्त्र में इन दोनों की ही परिभाषायें दी हुई हैं। "असत् वस्तु वह है, जिसकी भूतकाल में सत्ता नहीं थी और भविष्य में भी वह नहीं होगी परन्तु वर्तमान में उसका अस्तित्व प्रतीत-सा होता है। माण्डूक्य कारिका की भाषा में, "जिसका अस्तित्व प्रारम्भ और अन्त में नहीं है, वह वर्तमान में भी असत् ही है; हमें दिखाई देने वाली वस्तुयें मिथ्या होने पर भी उन्हें सत् माना जाता है।स्वाभाविक ही, "सत्य वस्तु वह है जो भूत,वर्तमान, भविष्य इन तीनों कालों में भी नित्य अविकारी रूप में रहती है।" सामान्य व्यवहार में यदि कोई व्यक्ति किसी स्तम्भ को भूत समझ लेता है, तो स्तम्भ की दृष्टि से भूत को असत् कहा जायेगा ; क्योंकि भूत अनित्य है और स्तम्भ का ज्ञान होने पर वहाँ रहता नहीं। इसी प्रकार स्वप्न से जागने पर स्वप्न के बच्चों के लिये हमें कोई चिन्ता नहीं होती, क्योंकि जागने पर स्वप्न के मिथ्यात्व का हमें बोध होता है। प्रतीत होने पर भी स्वप्न मिथ्या है। अत: तीनों काल में अबाधित वस्तु ही सत्य कहलाती है।शरीर, मन और बुद्धि इन जड़ उपाधियों के साथ हमारा जीवन परिच्छिन्न है, क्योंकि इनके द्वारा प्राप्त बाह्य विषय, भावना और विचारों के अनुभव क्षणिक होते हैं। इन तीनों में ही नित्य परिवर्तन हो रहा है। एक अवस्था का नाश दूसरी अवस्था की उत्पत्ति है। परिभाषा के अनुसार ये सब 'असत्' हैं।क्या इनके पीछे कोई सत्य वस्तु है ? इसमें कोई संदेह नहीं कि वस्तुओं में होने वाले परिवर्तनों के लिये किसी एक अविकारी अधिष्ठान - आश्रय की आवश्यकता है। शरीर, मन और बुद्धि के स्तर पर होने वाले असंख्य अनुभवों को एक सूत्र में धारण कर एक पूर्ण जीवन का अनुभव कराने के लिये निश्चय ही एक नित्य, अपरिर्तनशील सत् वस्तु का अधिष्ठान आवश्यक है।मणियों को धारण करने वाले एक सूत्र के समान हममें 'कुछ' है जो परिवर्तनों के मध्य रहते हुये विविध अनुभवों को एक साथ बांधकर रखता है। सूक्ष्म विचार करने पर यह ज्ञान होगा कि वह 'कुछ' अपनी स्वयं की चैतन्य स्वरूप आत्मा है। असंख्य अनुभव जो प्रकाशित हुये, उनमें से कोई अनुभव आत्मा नहीं है। जीवन जो कि अनुभवों की एक धारा है, योग है, इस चैतन्य के कारण ही सम्भव है। बाल्यावस्था, युवावस्था और वृद्धावस्था में होने वाले अनुभवों को यह चैतन्य ही प्रकाशित करता है। अनुभव आते हैं और जाते हैं। जिस चैतन्य के कारण मैंने सबको जाना, जिसके बिना मेरा कोई अस्तित्व नहीं है - 'वह' चैतन्य आत्मा जन्म और नाश से रहित, नित्य सत्य वस्तु है।तत्त्वदर्शी पुरुष इन दोनों - सत् और असत्, आत्मा और अनात्मा के तत्त्व को पहचानते हैं। इन दोनों के रहस्यमय संयोग से यह विचित्र जगत् उत्पन्न होता है।फिर वह नित्य सद्वस्तु क्या है? सुनो -- ।।2.16।।
                    English commentary by Swami Sivananda
                    The changeless, homogeneous Atman or the Self always exists. It is the only solid Reality. This phenomenal world of names and forms is ever changing. Hence it is unreal. The sage or the Jivanmukta is fully aware that the Self always exists and that this world is like a mirage. Through his Jnanachakshus or the eye of intuition, he directly cognises the Self. This world vanishes for him like the snake in the rope, after it has been seen that only the rope exists. He rejects the names and forms and takes the underlying Essence in all the names and forms, viz., Asti-Bhati-Priya or Satchidananda or Existence-Knowledge-Bliss Absolute. Hence he is a Tattvadarshi or a knower of the Truth or the Essence.What is changing must be unreal. What is constant or permanent must be real. 

                  Wednesday, June 25, 2014

                  Chapter 2 Shloka 15

                    यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुषर्षभ | समदुःखसुखं धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते ||२-१५|| यम् हि न व्यथयन्ति एते पुरुषम् पुरुष-ऋषभ | सम-दुःख-सुखम् धीरम् सः अमृतत्वाय कल्पते ||२-१५||
                      yaṁ hi na vyathayanty ete
                      puruṣaṁ puruṣarṣabha
                      sama-duḥkha-sukhaṁ dhīraṁ
                      so 'mṛtatvāya kalpate


                      यं = one to whom हि = certainly न = never व्यथयन्ति = are distressing एते = all these पुरुषं = to a person पुरुषर्षभ = O best among men सम = unaltered दुःख = in distress सुखं = and happiness धीरं = patient सः = he अमृतत्त्वाय = for liberation कल्पते = is considered eligible.
                      Hindi translation by Swami Ram Sukhdas
                      हे पुरुषोंमें श्रेष्ठ अर्जुन! सुख-दुःखमें सम रहनेवाले जिस धीर मनुष्यको ये मात्रास्पर्श (पदार्थ) व्यथा नहीं पहुँचाते, वह अमर होनेमें समर्थ हो जाता है अर्थात् वह अमर हो जाता है ।।2.15।।

                      English translation by Swami Sivananda
                      2.15 That firm man whom, surely, these afflict not, O chief among men, to whom pleasure and pain are the same, is fit for attaining immortality. 

                      Hindi commentary by Swami Chinmayananda 
                      सुख और दु:ख को शान्त भाव से सहन करने का नाम 'तितिक्षा' है, जो उपनिषदों के अनुसार, आत्मसाक्षात्कार के लिये एक आवश्यक गुण है। इसी को ध्यान में रखकर भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं कि इस प्रकार की तितिक्षा से सम्पन्न व्यक्ति "मोक्ष का अधिकारी बन जाता है।"यहाँ मोक्ष का तात्पर्य 'अमृतत्व' शब्द से किया है। इस शब्द से स्थूल शरीर का मोक्ष नहीं समझना चाहिये। यहाँ इस शब्द का उपयोग उसके व्यापक अर्थ में किया गया है। शरीर, मन और बुद्धि तथा इनके द्वारा प्राप्त सभी अनुभव र्मत्य और अनित्य ही हैं। इन उपाधियों के साथ हमारा तादात्म्य होने से इनके जन्म-मरणादि धर्मों से हम प्रभावित होकर दु:खी होते हैं। अमृतत्व का अर्थ है, जो पुरुष अपने नित्य आत्मस्वरूप को पहचान लेता है, वह इन सब अनुभवों को प्राप्त कर, उनके मध्य रहता हुआ भी शोक-मोह को प्राप्त नहीं होता। उसे अपने अमृतस्वरूप का विस्मरण नहीं होता।गीता के द्वारा महान् कवि व्यास जी भगवान् श्रीकृष्ण के माध्यम से हमें हमारे जीवन का लक्ष्य बताते हैं 'पूर्णत्व की प्राप्ति'। अल्पकाल के लिये प्राप्त इस जीवन में हमको इस लक्ष्य प्राप्ति के लिये प्रयत्न करना चाहिये। चिन्तित हुये बिना प्रसन्नतापूर्वक जीवन में आने वाले सुखदु:खादि कष्टों को सहन करने की सर्वोच्च साधना करने का इन परिस्थितियों में हमें अवसर मिलता है।तितिक्षा का अर्थ 'निराश - उदास भाव से जो हो रहा है, उसको सहन करना'- ऐसा नहीं है। यहाँ विशेष रूप से कहा है कि शीतोष्णादि द्वन्द्वों में जिसका मन समभाव में स्थित रहता है वह धीर पुरुष मोक्ष का अधिकारी होता है। यहाँ प्रयोजन निराश व्यक्ति की सहनशक्ति से नहीं बल्कि जगत् के परिर्वतनशील स्वभाव को अच्छी प्रकार समझ लेने से है। विवेकी पुरुष में यह सार्मथ्य आ जाती है कि सुख में उसे हर्षातिरेक नहीं होता और न दु:ख में अत्यन्त विषाद।जब तक देह के साथ हमारी अत्यन्त आसक्ति रहती है, तब तक उसमें होने वाली पीड़ाओं से हम विलग नहीं हो सकते और हम व्यथित हो जाते हैं। हृदय में प्रेम अथवा घृणा के भाव के प्रादुर्भाव से यदि शारीरिक कष्ट सहने की आवश्यकता पड़ती है, तो वह क्षमता हममें आ जाती है। पुत्र के प्रति प्रेम के कारण उसको शिक्षा आदि देने के लिए आवश्यकता पड़ने पर हम बड़ी प्रसन्नता से अपनी शारीरिक सुख सुविधाओं का त्याग करने के लिए तैयार हो जाते हैं। वह असुविधा हमें कष्ट नहीं पहुँचाती। इसी प्रकार बुद्धिनिष्ठ आदर्शों की प्राप्ति के लिए शरीर और मन के आरामों को भी हम त्याग देते हैं। विश्व के अनेक देशभक्त क्रान्तिकारियों ने अपने देश की स्वतन्त्र्ाता के आदर्शों को प्राप्त करने के लिए अनेक कष्ट सहन करके अपने प्राणों की आहुति दी है।निम्नलिखित कारणों से भी तुम्हारे लिए उचित है कि शोक और मोह को छोड़ कर तुम शान्तिपूर्वक शीतादि को सहन करो। क्योंकि -- ।।2.15।।

                      Hindi commentary by Swami Ramsukhdas
                      व्याख्या -- पुरुषर्षभ -- मनुष्य प्रायः परिस्थितियोंको बदलनेका ही विचार करता है, जो कभी बदली नहीं जा सकतीं और जिनको बदलना सम्भव ही नहीं। युद्धरूपी परिस्थितिके प्राप्त होनेपर अर्जुनने उसको बदलनेका विचार न करके अपने कल्याणका विचार कर लिया है। यह कल्याणका विचार करना ही मनुष्योंमें उनकी श्रेष्ठता है।समदुःखसुखं धीरम् -- धीर मनुष्य सुख-दुःखमें सम होता है। अन्तःकरणकी वृत्तिसे ही सुख और दुःख -- ये दोनों अलग-अलग दीखते हैं। सुख-दुःखके भोगनेमें पुरुष (चेतन) हेतु है, और वह हेतु बनता है प्रकृतिमें स्थित होनेसे (गीता 13। 20-21)। जब वह अपने स्वरूपमें स्थित हो जाता है, तब सुख-दुःखको भोगनेवाला कोई नहीं रहता। अतः अपने-आपमें स्थित होनेसे वह सुख-दुःखमें स्वाभाविक ही सम हो जाता है।यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषम् -- धीर मनुष्यको ये मात्रास्पर्श अर्थात् प्रकृतिके मात्र पदार्थ व्यथा नहीं पहुँचाते। प्राकृत पदार्थोंके संयोगसे जो सुख होता है, वह भी व्यथा है और उन पदार्थोंके वियोगसे जो दुःख होता है, वह भी व्यथा है। परन्तु जिसकी दृष्टि समताकी तरफ है, उसको ये प्राकृत पदार्थ सुखी-दुःखी नहीं कर सकते। समताकी तरफ दृष्टि रहनेसे अनुकूलताको लेकर उस सुखका ज्ञान तो होता है, पर उसका भोग न होनेसे अन्तःकरणमें उस सुखका स्थायी रूपसे संस्कार नहीं पड़ता। ऐसे ही प्रतिकूलता आनेपर उस दुःखका ज्ञान तो होता है, पर उसका भोग न होनेसे अन्तःकरणमें उस दुःखका स्थायीरूपसे संस्कार नहीं पड़ता। इस प्रकार सुख-दुःखके संस्कार न पड़नेसे वह व्यथित नहीं होता। तात्पर्य यह हुआ कि अन्तःकरणमें सुख-दुःखका ज्ञान होनेसे वह स्वयं सुखी-दुःखी नहीं होता।सोऽमृतत्वाय कल्पते -- ऐसा धीर मनुष्य अमरताके योग्य हो जाता है अर्थात् उसमें अमरता प्राप्त करनेकी सामर्थ्य आ जाती है। सामर्थ्य, योग्यता आनेपर वह अमर हो ही जाता है, इसमें देरीका कोई काम नहीं। कारण कि उसकी अमरता तो स्वतःसिद्ध है। केवल पदार्थोंके संयोग-वियोगसे जो अपनेमें विकार मानता था, यही गलती थी। विशेष बातयह मनुष्य-योनि सुख-दुःख भोगनेके लिये नहीं मिली है, प्रत्युत सुख-दुःखसे ऊँचा उठकर महान् आनन्द, परम शान्तिकी प्राप्तिके लिये मिली है, जिस आनन्द, सुख-शान्तिके प्राप्त होनेके बाद और कुछ प्राप्त करना बाकी नहीं रहता (गीता 6। 22)। अगर अनुकूल वस्तु, व्यक्ति, परिस्थिति आदिके होनेमें अथवा उनकी सम्भावनामें हम सुखी होंगे अर्थात् हमारे भीतर अनुकूल वस्तु, व्यक्ति आदिको प्राप्त करनेकी कामना, लोलुपता रहेगी तो हम अनुकूलताका सदुपयोग नहीं कर सकेंगे। अनुकूलताका सदुपयोग करनेकी सामर्थ्य, शक्ति हमें प्राप्त नहीं हो सकेगी। कारण कि अनुकूलताका सदुपयोग करनेकी शक्ति अनुकूलताके भोगमें खर्च हो जायगी, जिससे अनुकूलताका सदुपयोग नहीं होगा; किन्तु भोग ही होगा। इसी रीतिसे प्रतिकूल वस्तु, व्यक्ति, परिस्थिति, घटना, क्रिया आदिके आनेपर अथवा उनकी आशंकासे हम दुःखी होंगे तो प्रतिकूलताका सदुपयोग नहीं होगा; किन्तु भोग ही होगा। दुःखको सहनेकी सामर्थ्य हमारेमें नहीं रहेगी। अतः हम प्रतिकूलताके भोगमें ही फँसे रहेंगे और दुःखी होते रहेंगे।अगर अनुकूल वस्तु, व्यक्ति, परिस्थिति, घटना आदिके प्राप्त होनेपर सुख-सामग्रीका अपने सुख, आराम, सुविधाके लिये उपयोग करेंगे और उससे राजी होंगे तो यह अनुकूलताका भोग हुआ। परन्तु निर्वाह-बुद्धिसे उपयोग करते हुए उस सुख-सामग्रीको अभावग्रस्तोंकी सेवामें लगा दें तो यह अनुकूलताका सदुपयोग हुआ। अतः सुख-सामग्री को दुःखियोंकी ही समझें। उसमें दुःखियोंका ही हक है। मान लो कि हम लखपति हैं तो हमें लखपति होनेका सुख होता है, अभिमान होता है। परन्तु यह सब तब होता है, जब हमारे सामने कोई लखपति न हो। अगर हमारे सामने, हमारे देखने-सुननेमें जो आते हैं, वे सब-के-सब करोड़पति हों, तो क्या हमें लखपति होनेका सुख मिलेगा? बिलकुल नहीं मिलेगा। अतः हमें लखपति होनेका सुख तो अभावग्रस्तोंने, दरिद्रोंने ही दिया है। अगर हम मिली हुई सुख-सामग्रीसे अभावग्रस्तोंकी सेवा न करके स्वयं सुख भोगते हैं, तो हम कृतघ्न होते हैं। इसीसे सब अनर्थ पैदा होते हैं। कारण कि हमारे पास जो सुख-सामग्री है, वह दुःखी आदमियोंकी ही दी हुई है। अतः उस सुख-सामग्रीको दुःखियोंकी सेवामें लगा देना हमारा कर्तव्य होता है।अब विचार यह करना है कि प्रतिकूलताका सदुपयोग कैसे किया जाय? दुःखका कारण सुखकी इच्छा, आशा ही है। प्रतिकूल परिस्थिति दुःखदायी तभी होती है, जब भीतर सुखकी इच्छा रहती है। अगर हम सावधानीके साथ अनुकूलताकी इच्छाका, सुखकी आशाका त्याग कर दें, तो फिर हमें प्रतिकूल परिस्थितिमें दुःख नहीं हो सकता अर्थात् हमें प्रतिकूल परिस्थिति दुःखी नहीं कर सकती। जैसे, रोगीको कड़वी-से-कड़वी दवाई लेनी पड़े, तो भी उसे दुःख नहीं होता, प्रत्युत इस बातको लेकर प्रसन्नता होती है कि इस दवाईसे मेरा रोग नष्ट हो रहा है। ऐसे ही पैरमें काँटा गहरा गड़ जाय और काँटा निकालनेवाला उसे निकालनेके लिये सुईसे गहरा घाव बनाये तो बड़ी पीड़ा होती है। उस पीड़ासे वह सिसकता है, घबराता है, पर वह काँटा निकालनेवालेको यह कभी नहीं कहता कि भाई, तुम छोड़ दो, काँटा मत निकालो। काँटा निकल जायगा, सदाके लिये पीड़ा दूर हो जायगी -- इस बातको लेकर वह इस पीड़ाको प्रसन्नतापूर्वक सह लेता है। यह जो सुखकी इच्छाका त्याग करके दुःखको, पीड़ाको प्रसन्नतापूर्वक सहना है यह प्रतिकूलताका सदुपयोग है। अगर वह कड़वी दवाई लेनेसे, काँटा निकालनेकी पीड़ासे दुःखी हो जाता है, तो यह प्रतिकूलताका भोग है, जिससे उसको भयंकर दुःख पाना पड़ेगा।यदि हम सुख-दुःखका उपभोग करते रहेंगे, तो भविष्यमें हमें भोग-योनियोंमें अर्थात् स्वर्ग, नरक आदिमें जाना ही पड़ेगा। कारण कि सुख-दुःख भोगनेके स्थान ये स्वर्ग, नरक आदि ही हैं। यदि हम सुख-दुःखका भोग करते हैं, सुख-दुःखमें सम नहीं रहते, सुख-दुःखसे ऊँचे नहीं उठते, तो हम मुक्तिके पात्र कैसे होंगे? नहीं हो सकते।चौदहवें श्लोकमें भगवान्ने कहा कि ये सांसारिक पदार्थ आदि अनुकूलता-प्रतिकूलताके द्वारा सुख-दुःख देनेवाले और आने-जानेवाले हैं, सदा रहनेवाले नहीं हैं; क्योंकि ये अनित्य हैं; क्षणभङ्गुर हैं। इनके प्राप्त होनेपर उसी क्षण इनका नष्ट होना शुरू हो जाता है। इनका संयोग होते ही इनसे वियोग होना शुरू हो जाता है। ये पहले नहीं थे, पीछे नहीं रहेंगे और वर्तमानमें भी प्रतिक्षण अभावमें जा रहे हैं। इनको भोगकर हम केवल अपना स्वभाव बिगाड़ रहे हैं, सुख-दुःखके भोगी बनते जा रहे हैं। सुख-दुःखके भोगी बनकर हम भोगयोनिके ही पात्र बनते जा रहे हैं, फिर हमें मुक्ति कैसे मिलेगी? हमें भुक्ति-(भोग-) की ही रुचि है, तो फिर भगवान् हमें मुक्ति कैसे देंगे? इस प्रकार यदि हम सुख-दुःखका उपभोग न करके उनका सदुपयोग करेंगे, तो हम सुख-दुःखसे ऊँचे उठ जायेंगे और महान् आनन्दका अनुभव कर लेंगे।सम्बन्ध -- अबतक देह-देहीका जो विवेचन हुआ है, उसीको भगवान् दूसरे शब्दोंसे आगेके तीन श्लोकोंमें कहते हैं ।।2.15।।                   
                      English commentary by Swami Sivananda
                      2.15 यम् whom, हि surely, न व्यथयन्ति afflict not, एते these, पुरुषम् man, पुरुषर्षभ chief among men, समदुःखसुखम् same in pleasure and pain, धीरम् firm man, सः he, अमृतत्वाय for immortality, कल्पते is fit.Commentary -- Dehadhyasa or identification of the Self with the body is the cause of pleasure and pain. The more you are able to identify yourself with the immortal, all-pervading Self, the less will you be affected by the pairs of opposites (Dvandvas, pleasure and pain, etc.)Titiksha or the power of endurance develops the will-power. Calm endurance in pleasure and pain, and heat and cold is one of the qualifications of an aspirant on the path of Jnana Yoga. It is one of the Shatsampat or sixfold virtues. It is a condition of right knowledge. Titiksha by itself cannot give you Moksha or liberation, but still, when coupled with discrimination and dispassion, it becomes a means to the attainment of Immortality or knowledge of the Self. (Cf.XVII.53)