- नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः |
उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभिः ||२-१६||
न असतः विद्यते भावः न अभावः विद्यते सतः |
उभयोः अपि दृष्टः अन्तः तु अनयोः तत्त्व-दर्शिभिः ||२-१६||
असतः भावः न विद्यते सतः अभावः न विद्यते | तत्त्व-दर्शिभिः तु
उभयोः अपि अनयोः अन्तः दृष्टः |
nāsato vidyate bhāvo
nābhāvo vidyate sataḥ
ubhayor api dṛṣṭo 'ntas
tvanayos tattva-darśibhiḥ
न = never
असतः = of the nonexistent
विद्यते = there is
भावः = endurance
न = never
अभावः = changing quality
विद्यते = there is
सतः = of the eternal
उभयोः = of the two
अपि = verily
दृष्टः = observed
अन्तः = conclusion
तु = indeed
अनयोः = of them
तत्त्व = of the truth
दर्शिभिः = by the seers.
(टिप्पणी प0 55) असत्का तो भाव (सत्ता) विद्यमान नहीं है और सत्का अभाव विद्यमान नहीं है, तत्त्वदर्शी महापुरुषोंने इन दोनोंका ही अन्त अर्थात् तत्त्व देखा है ।।2.16।।
English translation by Swami Sivananda
2.16 The unreal hath no being; there is non-being of the real; the truth about both has been seen by the knowers of the Truth (or the seers of the Essence).
Hindi commentary by Swami Ramsukhdas
व्याख्या -- नासतो विद्यते भावः -- शरीर उत्पत्तिके पहले भी नहीं था, मरनेके बाद भी नहीं रहेगा और वर्तमानमें भी इसका क्षण-प्रतिक्षण अभाव हो रहा है। तात्पर्य है कि यह शरीर भूत, भविष्य और वर्तमान -- इन तीनों कालोंमें कभी भावरूपसे नहीं रहता। अतः यह असत् है। इसी तरहसे इस संसारका भी भाव नहीं है, यह भी असत् है। यह शरीर तो संसारका एक छोटा-सानमूना है; इसलिये शरीरके परिवर्तनसे संसारमात्रके परिवर्तनका अनुभव होता है कि इस संसारका पहले भी अभाव था और पीछे भी अभाव होगा तथा वर्तमानमें भी अभाव हो रहा है।संसारमात्र कालरूपी अग्निमें लकड़ीकी तरह निरन्तर जल रहा है। लकड़ीके जलनेपर तो कोयला और राख बची रहती है, पर संसारको कालरूपी अग्नि ऐसी विलक्षण रीतिसे जलाती है कि कोयला अथवा राख कुछ भी बाकी नहीं रहता। वह संसारका अभाव-ही-अभाव कर देती है। इसलिये कहा गया है कि असत्की सत्ता नहीं है।नाभावो विद्यते सतः -- जो सत् वस्तु है, उसका अभाव नहीं होता अर्थात् जब देह उत्पन्न नहीं हुआ था, तब भी देही था, देह नष्ट होनेपर भी देही रहेगा और वर्तमानमें देहके परिवर्तनशील होनेपर भी देही उसमें ज्यों-का-त्यों ही रहता है। इसी रीतिसे जब संसार उत्पन्न नहीं हुआ था, उस समय भी परमात्मतत्त्व था, संसारका अभाव होनेपर भी परमात्मतत्त्व रहेगा और वर्तमानमें संसारके परिवर्तनशील होनेपर भी परमात्मतत्त्व उसमें ज्यों-का-त्यों ही है।मार्मिक बात संसारको हम एक ही बार देख सकते हैं, दूसरी बार नहीं। कारण कि संसार प्रतिक्षण परिवर्तनशील है; अतः एक क्षण पहले वस्तु जैसी थी, दूसरे क्षणमें वह वैसी नहीं रहती, जैसे -- सिनेमा देखते समय परदेपर दृश्य स्थिर दीखता है; पर वास्तवमें उसमें प्रतिक्षण परिवर्तन होता रहता है। मशीनपर फिल्म तेजीसे घूमनेके कारण वह परिवर्तन इतनी तेजीसे होता है कि उसे हमारी आँखें नहीं पकड़ पातीं (टिप्पणी प0 56.1)। इससे भी अधिक मार्मिक बात यह है कि वास्तवमें संसार एक बार भी नहीं दीखता। कारण कि शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदि जिन करणोंसे हम संसारको देखते हैं -- अनुभव करते हैं, वे करण भी संसारके ही हैं। अतः वास्तवमें संसारसे ही संसार दीखता है। जो शरीर-संसारसे सर्वथा सम्बन्ध-रहित है, उस स्वरूपसे संसार कभी दीखता ही नहीं! तात्पर्य यह है कि स्वरूपमें संसारकी प्रतीति नहीं है। संसारके सम्बन्धसे ही संसारकी प्रतीति होती है। इससे सिद्ध हुआ कि स्वरूपका संसारसे कोई सम्बन्ध है ही नहीं।दूसरी बात, संसार (शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि) की सहायताके बिना चेतन-स्वरूप कुछ कर ही नहीं सकता। इससे सिद्ध हुआ कि मात्र क्रिया संसारमें ही है, स्वरूपमें नहीं। स्वरूपका क्रियासे कोई सम्बन्ध है ही नहीं।संसारका स्वरूप है -- क्रिया और पदार्थ। जब स्वरूपका न तो क्रियासे और न पदार्थसे ही कोई सम्बन्ध है, तब यह सिद्ध हो गया कि शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धि-सहित सम्पूर्ण संसारका अभाव है। केवल परमात्मतत्त्वका ही भाव (सत्ता) है, जो निर्लिप्तरूपसे सबका प्रकाशक और आधार है।उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभिः -- इन दोनोंके अर्थात् सत्-असत्, देही-देहके तत्त्वको जाननेवाले महापुरुषोंने इनका तत्त्व देखा है, इनका निचोड़ निकाला है कि केवल एक सत्-तत्त्व ही विद्यमान है।असत् वस्तुका तत्त्व भी सत् है और सत् वस्तुका तत्त्व भी सत् है अर्थात् दोनोंका तत्त्व एक ' सत् ' ही है, दोनोंका तत्त्व भावरूपसे एक ही है। अतः सत् और असत् -- इन दोनोंके तत्त्वको जाननेवाले महापुरुषोंके द्वारा जाननेमें आनेवाला एक सत्-तत्त्व ही है। असत्की जो सत्ता प्रतीत होती है, वह सत्ता भी वास्तवमें सत्की ही है। सत्की सत्तासे ही असत् सत्तावान् प्रतीत होता है। इसी सत्को परा प्रकृति (गीता 7। 5), क्षेत्रज्ञ (गीता 13। 1-2), पुरुष (गीता 13। 19) और अक्षर (गीता 15। 16) कहा गया है; तथा असत्को अपरा प्रकृति, क्षेत्र, प्रकृति और क्षर कहा गया है।अर्जुन भी शरीरोंको लेकर शोक कर रहे हैं कि युद्ध करनेसे ये सब मर जायँगे। इसपर भगवान् कहते हैं कि क्या युद्ध न करनेसे ये नहीं मरेंगे? असत् तो मरेगा ही और निरन्तर मर ही रहा है। परन्तु इसमें जो सत्-रूपसे है, उसका कभी अभाव नहीं होगा। इसलिये शोक करना तुम्हारी बेसमझी ही है।ग्यारहवें श्लोकमें आया है कि जो मर गये हैं और जो जी रहे हैं, उन दोनोंके लिये पण्डितजन शोक नहीं करते। बारहवें-तेरहवें श्लोकोंमें देहीकी नित्यताका वर्णन है उसमें धीर शब्द आया है। चौदहवें-पंद्रहवें श्लोकोंमें संसारकी अनित्यताका वर्णन आया है, तो उसमें भी धीर शब्द आया है। ऐसे ही यहाँ (सोलहवें श्लोकमें) सत्-असत्का विवेचन आया है, तो इसमें तत्त्वदर्शी (टिप्पणी प0 56.2) शब्द आया है। इन श्लोकोंमें पण्डित, धीर और तत्त्वदर्शी पद देनेका तात्पर्य है कि जो विवेकी होते हैं, समझदार होते हैं, उनको शोक नहीं होता। अगर शोक होता है, तो वे विवेकी नहीं हैं, समझदार नहीं हैं।सम्बन्ध -- सत् और असत् क्या है -- इसको आगेके दो श्लोकोंमें बताते हैं ।।2.16।।
Hindi commentary by Swami Chinmayananda
वेदान्त शास्त्र में सत् -असत् का विवेक अत्यन्त वैज्ञानिक पद्धति से किया गया है। हमारे दर्शनशास्त्र में इन दोनों की ही परिभाषायें दी हुई हैं। "असत् वस्तु वह है, जिसकी भूतकाल में सत्ता नहीं थी और भविष्य में भी वह नहीं होगी परन्तु वर्तमान में उसका अस्तित्व प्रतीत-सा होता है। माण्डूक्य कारिका की भाषा में, "जिसका अस्तित्व प्रारम्भ और अन्त में नहीं है, वह वर्तमान में भी असत् ही है; हमें दिखाई देने वाली वस्तुयें मिथ्या होने पर भी उन्हें सत् माना जाता है।स्वाभाविक ही, "सत्य वस्तु वह है जो भूत,वर्तमान, भविष्य इन तीनों कालों में भी नित्य अविकारी रूप में रहती है।" सामान्य व्यवहार में यदि कोई व्यक्ति किसी स्तम्भ को भूत समझ लेता है, तो स्तम्भ की दृष्टि से भूत को असत् कहा जायेगा ; क्योंकि भूत अनित्य है और स्तम्भ का ज्ञान होने पर वहाँ रहता नहीं। इसी प्रकार स्वप्न से जागने पर स्वप्न के बच्चों के लिये हमें कोई चिन्ता नहीं होती, क्योंकि जागने पर स्वप्न के मिथ्यात्व का हमें बोध होता है। प्रतीत होने पर भी स्वप्न मिथ्या है। अत: तीनों काल में अबाधित वस्तु ही सत्य कहलाती है।शरीर, मन और बुद्धि इन जड़ उपाधियों के साथ हमारा जीवन परिच्छिन्न है, क्योंकि इनके द्वारा प्राप्त बाह्य विषय, भावना और विचारों के अनुभव क्षणिक होते हैं। इन तीनों में ही नित्य परिवर्तन हो रहा है। एक अवस्था का नाश दूसरी अवस्था की उत्पत्ति है। परिभाषा के अनुसार ये सब 'असत्' हैं।क्या इनके पीछे कोई सत्य वस्तु है ? इसमें कोई संदेह नहीं कि वस्तुओं में होने वाले परिवर्तनों के लिये किसी एक अविकारी अधिष्ठान - आश्रय की आवश्यकता है। शरीर, मन और बुद्धि के स्तर पर होने वाले असंख्य अनुभवों को एक सूत्र में धारण कर एक पूर्ण जीवन का अनुभव कराने के लिये निश्चय ही एक नित्य, अपरिर्तनशील सत् वस्तु का अधिष्ठान आवश्यक है।मणियों को धारण करने वाले एक सूत्र के समान हममें 'कुछ' है जो परिवर्तनों के मध्य रहते हुये विविध अनुभवों को एक साथ बांधकर रखता है। सूक्ष्म विचार करने पर यह ज्ञान होगा कि वह 'कुछ' अपनी स्वयं की चैतन्य स्वरूप आत्मा है। असंख्य अनुभव जो प्रकाशित हुये, उनमें से कोई अनुभव आत्मा नहीं है। जीवन जो कि अनुभवों की एक धारा है, योग है, इस चैतन्य के कारण ही सम्भव है। बाल्यावस्था, युवावस्था और वृद्धावस्था में होने वाले अनुभवों को यह चैतन्य ही प्रकाशित करता है। अनुभव आते हैं और जाते हैं। जिस चैतन्य के कारण मैंने सबको जाना, जिसके बिना मेरा कोई अस्तित्व नहीं है - 'वह' चैतन्य आत्मा जन्म और नाश से रहित, नित्य सत्य वस्तु है।तत्त्वदर्शी पुरुष इन दोनों - सत् और असत्, आत्मा और अनात्मा के तत्त्व को पहचानते हैं। इन दोनों के रहस्यमय संयोग से यह विचित्र जगत् उत्पन्न होता है।फिर वह नित्य सद्वस्तु क्या है? सुनो -- ।।2.16।।
English commentary by Swami Sivananda
The changeless, homogeneous Atman or the Self always exists. It is the only solid Reality. This phenomenal world of names and forms is ever changing. Hence it is unreal. The sage or the Jivanmukta is fully aware that the Self always exists and that this world is like a mirage. Through his Jnanachakshus or the eye of intuition, he directly cognises the Self. This world vanishes for him like the snake in the rope, after it has been seen that only the rope exists. He rejects the names and forms and takes the underlying Essence in all the names and forms, viz., Asti-Bhati-Priya or Satchidananda or Existence-Knowledge-Bliss Absolute. Hence he is a Tattvadarshi or a knower of the Truth or the Essence.What is changing must be unreal. What is constant or permanent must be real.
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