Monday, July 14, 2014

Chapter 2 Shloka 17

          अविनाशि तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम् | विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित्कर्तुमर्हति ||२-१७|| अविनाशि तु तत् विद्धि येन सर्वम् इदम् ततम् | विनाशम् अव्ययस्य अस्य न कश्चित् कर्तुम् अर्हति ||२-१७|| विद्धि, येन इदम् सर्वम् ततम्, तत् तु अविनाशि | अस्य अव्ययस्य विनाशम् कर्तुम्, कश्चित् न अर्हति |
        avināśi tu tad viddhi
        yena sarvam idaṁ tatam
        vināśam avyayasyāsya
        na kaścit kartum arhati
          अविनाशि = imperishable तु = but तत् = that विद्धि = know it येन = by whom सर्वं = all of the body इदं = this ततं = pervaded विनाशं = destruction अव्ययस्य = of the imperishable अस्य = of it न कश्चित् = no one कर्तुं = to do अर्हति = is able.

        Hindi translation by Swami Ram Sukhdas
        अविनाशी तो उसको जान, जिससे यह सम्पूर्ण संसार व्याप्त है। इस अविनाशीका विनाश कोई भी नहीं कर सकता ।।2.17।।
        English translation by Swami Sivananda
        2.17 Know that to be indestructible, by Which all this is pervaded. None can cause the destruction of That, the Imperishable. 
        Hindi commentary by Swami Ramsukhdas
        व्याख्या -- अविनाशि तु तद्विद्धि -- पूर्वश्लोकमें जो सत्-असत्की बात कही थी, उसमेंसे पहले सत्की व्याख्या करनेके लिये यहाँ तु पद आया है।' उस अविनाशी तत्त्वको तू समझ ' -- ऐसा कहकर भगवान्ने उस तत्वको परोक्ष बताया है। परोक्ष बतानेमें तात्पर्य है कि इदंतासे दीखनेवाले इस सम्पूर्ण संसारमें वह परोक्ष तत्त्व ही व्याप्त है, परिपूर्ण है। वास्तवमें जो परिपूर्ण है, वही ' है ' और जो सामने संसार दीख रहा है, यह ' नहीं ' है।यहाँ तत् पदसे सत्-तत्त्वको परोक्षरीतिसे कहनेका तात्पर्य यह नहीं है कि वह तत्त्व बहुत दूर है; किन्तु वह इन्द्रियों और अन्तःकरणका विषय नहीं है, इसलिये उसको परोक्षरीतिसे कहा गया है।येन सर्वमिदं ततम् (टिप्पणी प0 57.1) -- जिसको परोक्ष कहा है, उसीका वर्णन करते हैं कि यह सब-का-सब संसार उस नित्य-तत्त्वसे व्याप्त है। जैसे सोनेसे बने हुए गहनोंमें सोना, लोहेसे बने हुए अस्त्र-शस्त्रोंमें लोहा, मिट्टीसे बने हुए बर्तनोंमें मिट्टी और जलसे बनी हुई बर्फमें जल ही व्याप्त (परिपूर्ण) है, ऐसे ही संसारमें वह सत्-तत्त्व ही व्याप्त है। अतः वास्तवमें इस संसारमें वह सत्-तत्त्व ही जाननेयोग्य है।विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित्कर्तुमर्हति -- यह शरीरी अव्यय (टिप्पणी प0 57.2) अर्थात् अविनाशी है। इस अविनाशीका कोई विनाश कर ही नहीं सकता। परन्तु शरीर विनाशी है -- क्योंकि वह नित्य-निरन्तर विनाशकी तरफ जा रहा है। अतः इस विनाशीके विनाशको कोई रोक ही नहीं सकता। तू सोचता है कि मैं युद्ध नहीं करूँगा तो ये नहीं मरेंगे, पर वास्तवमें तेरे युद्ध करनेसे अथवा न करनेसे इस अविनाशी और विनाशी तत्त्वमें कुछ फरक नहीं पड़ेगा अर्थात् अविनाशी तो रहेगा ही और विनाशीका नाश होगा ही।यहाँ अस्य पदसे सत्-तत्त्वको इदंतासे कहनेका तात्पर्य है कि प्रतिक्षण बदलनेवाले शरीरोंमें जो सत्ता दीखती है, वह इसी सत्-तत्त्वकी ही है। ' मेरा शरीर है और मैं शरीरधारी हूँ' -- ऐसा जो अपनी सत्ताका ज्ञान है, उसीको लक्ष्य करके भगवान्ने यहाँ अस्य पद दिया है ।।2.17।।
        Hindi commentary by Swami Chinmayananda 
        समस्त जगत् को जो व्याप्त किये हुये है और इस दृश्यमान अनुभव में आने वाले जगत् का जो अधिष्ठान है, वह सत् है। मिट्टी के बने अनेक प्रकार के पात्र होते हैं, जिनके, विभिन्न उपयोगों के कारण अथवा उनमें रखी वस्तुओं के कारण उनके विभिन्न नाम होते हैं, परंतु विविध आकारों के होने पर भी वे सब एक मिट्टी के ही बने होते हैं, जो सब आकारों में व्याप्त होती है और जिसके बिना किसी भी पात्र का अस्तित्व सिद्ध नहीं हो सकता। उन सब की उत्पत्ति, स्थिति और लय मिट्टी में ही है। अत: उनमें मिट्टी ही वास्तव में सत्य है।इसी प्रकार, यह नित्य परिवर्तनशील जगत् नित्य अविनाशी तत्त्व से व्याप्त है और भगवान् कहते हैं कि इस तत्त्व का विनाश कदापि सम्भव नहीं है।तब फिर असत् क्या है जिसका अस्तित्व नित्य नहीं है ? सुनो -- ।।2.17।।

        English commentary by Swami Sivananda
        The changeless, homogeneous Atman or the Self always exists. It is the only solid Reality. This phenomenal world of names and forms is ever changing. Hence it is unreal. The sage or the Jivanmukta is fully aware that the Self always exists and that this world is like a mirage. Through his Jnanachakshus or the eye of intuition, he directly cognises the Self. This world vanishes for him like the snake in the rope, after it has been seen that only the rope exists. He rejects the names and forms and takes the underlying Essence in all the names and forms, viz., Asti-Bhati-Priya or Satchidananda or Existence-Knowledge-Bliss Absolute. Hence he is a Tattvadarshi or a knower of the Truth or the Essence.What is changing must be unreal. What is constant or permanent must be real. 


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