Monday, July 21, 2014

Chapter 2 Shloka 18

    अन्तवन्त इमे देहा नित्यस्योक्ताः शरीरिणः | अनाशिनोऽप्रमेयस्य तस्माद्युध्यस्व भारत ||२-१८|| अन्तवन्तः इमे देहाः नित्यस्य उक्ताः शरीरिणः | अनाशिनः अप्रमेयस्य तस्मात् युध्यस्व भारत ||२-१८|| अनाशिनः अप्रमेयस्य नित्यस्य शरीरिणः इमे देहाः अन्तवन्तः उक्ताः | हे भारत!तस्मात् युध्यस्व |


    antavanta ime dehā nityasyoktāḥ śarīriṇaḥ anāśino 'prameyasya tasmād yudhyasva bhārata
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    अन्तवन्तः = perishable इमे = all these देहाः = material bodies नित्यस्य = eternal in existence उक्ताः = are said शरीरिणः = of the embodied soul अनाशिनः = never to be destroyed अप्रमेयस्य = immeasurable तस्मात् = therefore युध्यस्व = fight भारत = O descendant of Bharata.

    Hindi translation by Swami Ram Sukhdas
    अविनाशी, अप्रमेय और नित्य रहनेवाले इस शरीरके ये देह अन्तवाले कहे गये हैं। इसलिये हे अर्जुन! तुम युद्ध करो ।।2.18।।
    English translation by Swami Sivananda
    2.18 These bodies of the embodied Self, Which is eternal, indestructible and immeasurable, are said to have an end. Therefore fight, O Arjuna. 
    Hindi commentary by Swami Ramsukhdas
    व्याख्या -- अनाशिनः -- किसी कालमें, किसी कारणसे कभी किञ्चिन्मात्र भी जिसमें परिवर्तन नहीं होता, जिसकी क्षति नहीं होती, जिसका अभाव नहीं होता, उसका नाम अनाशी अर्थात् अविनाशी है।अप्रमेयस्य -- जो प्रमा-(प्रमाण-)का विषय नहीं है अर्थात् जो अन्तःकरण और इन्द्रियोंका विषय नहीं है, उसको ' अप्रमेय ' कहते हैं।जिसमें अन्तःकरण और इन्द्रियाँ प्रमाण नहीं होतीं, उसमें शास्त्र और सन्त-महापुरुष ही प्रमाण होते हैं, शास्त्र और सन्त-महापुरुष उन्हींके लिये प्रमाण होते हैं, जो श्रद्धालु हैं। जिसकी जिस शास्त्र और सन्तमें श्रद्धा होती है, वह उसी शास्त्र और सन्तके वचनोंको मानता है। इसलिये यह तत्त्व केवल श्रद्धाका विषय है (टिप्पणी प0 58.1), प्रमाणका विषय नहीं।शास्त्र और सन्त किसीको बाध्य नहीं करते कि तुम हमारेमें श्रद्धा करो। श्रद्धा करने अथवा न करनेमें मनुष्य स्वतन्त्र है। अगर वह शास्त्र और सन्तके वचनोंमें श्रद्धा करेगा, तो यह तत्त्व उसकी श्रद्धाका विषय है; और अगर वह श्रद्धा नहीं करेगा, तो यह तत्त्व उसकी श्रद्धाका विषय नहीं है।नित्यस्य -- यह नित्य-निरन्तर रहनेवाला है। किसी कालमें यह न रहता हो -- ऐसी बात नहीं है अर्थात् यह सब कालमें सदा ही रहता है।अन्तवन्त इमे देहा उक्ताः शरीरिणः -- इस अविनाशी, अप्रमेय और नित्य शरीरीके सम्पूर्ण संसारमें जितने भी शरीर हैं, वे सभी अन्तवाले कहे गये हैं। अन्तवाले कहनेका तात्पर्य है कि इनका प्रतिक्षण अन्त हो रहा है। इनमें अन्तके सिवाय और कुछ है ही नहीं, केवल अन्त-ही-अन्त है।उपर्युक्त पदोंमें शरीरीके लिये तो एकवचन दिया है और शरीरोंके लिये बहुवचन दिया है। इसका एक कारण तो यह है कि प्रत्येक प्राणीके स्थूल, सूक्ष्म और कारण -- ये तीन शरीर होते हैं। दूसरा कारण यह है कि संसारके सम्पूर्ण शरीरोंमें एक ही शरीरी व्याप्त है। आगे चौबीसवें श्लोकमें भी इसको सर्वगतः पदसे सबमें व्यापक बतायेंगे। यह शरीरी तो अविनाशी है और इसके कहे जानेवाले सम्पूर्ण शरीर नाशवान् हैं। जैसे अविनाशीका कोई विनाश नहीं कर सकता, ऐसे ही नाशवान्को कोई अविनाशी नहीं बना सकता। नाशवान्का तो विनाशीपना ही नित्य रहेगा अर्थात् उसका तो नाश ही होगा।विशेष बातयहाँ अन्तवन्त इमे देहाः कहनेका तात्पर्य है कि ये जो देह देखनेमें आते हैं, ये सब-के-सब नाशवान् हैं। पर ये देह किसके हैं? नित्यस्य, अनाशिनः -- ये देह नित्यके हैं, अविनाशीके हैं। तात्पर्य है कि नित्य-तत्त्वने, जिसका कभी नाश नहीं होता, इनको अपना मान रखा है। अपना माननेका अर्थ है कि अपनेको शरीरमें रख दिया और शरीरको अपनेमें रख लिया। अपनेको शरीरमें रखनेसे ' अहंता ' अर्थात् ' मैं'-पन पैदा हो गया और शरीरको अपनेमें रखनेसे ' ममता ' अर्थात् ' मेरा'-पन पैदा हो गया।यह स्वयं जिन-जिन चीजोंमें अपनेको रखता चला जाता है, उन-उन चीजोंमें ' मैं'-पन होता ही चला जाता है; जैसे -- अपनेको धनमें रख दिया तो ' मैं धनी हूँ '; अपनेको राज्यमें रख दिया तो ' मैं राजा हूँ '; अपनेको विद्यामें रख दिया तो ' मैं विद्वान् हूँ '; अपनेको बुद्धिमें रख दिया तो ' मैं बुद्धिमान् हूँ '; अपनेको सिद्धियों में ख दिया तो ' मैं सिद्ध हूँ '; अपनेको शरीरमें रख दिया तो ' मैं शरीर हूँ '; आदि-आदि।यह स्वयं जिन-जिन चीजोंको अपनेमें रखता चला जाता है, उन-उन चीजोंमें ' मेरा'-पन होता ही चला जाता है; जैसे -- कुटुम्बको अपनेमें रख लिया तो ' कुटुम्ब मेरा है '; धनको अपनेमें रख लिया तो ' धन मेरा है '; बुद्धिको अपनेमें रख लिया तो' बुद्धि मेरी है; शरीरको अपनेमें रख लिया तो ' शरीर मेरा है '; आदि-आदि।जडताके साथ ' मैं' और ' मेरा ' -पन होनेसे ही मात्र विकार पैदा होते हैं। तात्पर्य है कि शरीर और मैं (स्वयं) -- दोनों अलग-अलग हैं, इस विवेकको महत्त्व न देनेसे ही मात्र विकार पैदा होते हैं। परन्तु जो इस विवेकको आदर देते हैं, महत्व देते हैं वे पण्डित होते हैं। ऐसे पण्डितलोग कभी शोक नहीं करते; क्योंकि सत् सत् ही है और असत् असत् ही है -- इसका उनको ठीक अनुभव हो जाता है।तस्मात् (टिप्पणी प0 58.2) युध्यस्व -- भगवान् अर्जुनके लिये आज्ञा देते हैं कि सत्-असत्को ठीक समझकर तुम युद्ध करो अर्थात् प्राप्त कर्तव्यका पालन करो। तात्पर्य है कि शरीर तो अन्तवाला है और शरीरी अविनाशी है। इन दोनों -- शरीर-शरीरीकी दृष्टिसे शोक बन ही नहीं सकता। अतः शोकका त्याग करके युद्ध करो।विशेष बातयहाँ सत्रहवें और अठारहवें -- इन दोनों श्लोकोंमें विशेषतासे सत्-तत्त्वका ही विवेचन हुआ है। कारण कि इस पूरे प्रकरणमें भगवान्का लक्ष्य सत्का बोध करानेमें ही है। सत्का बोध हो जानेसे असत्की निवृत्ति स्वतः हो जाती है। फिर किसी प्रकारका किञ्चिन्मात्र भी सन्देह नहीं रहता। इस प्रकार सत्का अनुभव करके निःसंदिग्ध होकर कर्तव्यका पालन करना चाहिये। इस विवेचनसे यह बात सिद्ध होती है कि सांख्ययोग एवं कर्मयोगमें किसी विशेष वर्ण और आश्रमकी आवश्यकता नहीं है। अपने कल्याणके लिये चाहे सांख्ययोगका अनुष्ठान करे, चाहे कर्मयोगका अनुष्ठान करे, इसमें मनुष्यकी पूर्ण स्वतन्त्रता है। परन्तु व्यावहारिक काम करनेमें वर्ण और आश्रमके अनुसार शास्त्रीय विधानकी परम आवश्यकता है, तभी तो यहाँ सांख्ययोगके अनुसार सत्-असत्का विवेचन करते हुए भगवान् युद्ध करनेकी अर्थात् कर्तव्य-कर्म करनेकी आज्ञा देते हैं।आगे तेरहवें अध्यायमें जहाँ ज्ञानके साधनोंका वर्णन किया गया है, वहाँ भी असक्तिरनभिष्वङ्गः पुत्रदार-गृहादिषु (13। 9) कहकर पुत्र, स्त्री, घर आदिकी आसक्तिका निषेध किया है। अगर संन्यासी ही सांख्ययोगके अधिकारी होते तो पुत्र, स्त्री, घर आदिमें आसक्तिरहित होनेके लिये कहनेकी आवश्यकता ही नहीं थी; क्योंकि संन्यासीके पुत्र-स्त्री आदि होते ही नहीं।इस तरह गीतापर विचार करनेसे सांख्ययोग एवं कर्मयोग -- दोनों परमात्मप्राप्तिके स्वतन्त्र साधन सिद्ध हो जाते हैं। ये किसी वर्ण और आश्रमपर किञ्चिन्मात्र भी अवलम्बित नहीं हैं।सम्बन्ध -- पूर्वश्लोकतक शरीरीको अविनाशी जाननेवालोंकी बात कही। अब उसी बातको अन्वय और व्यतिरेकरीतिसे दृढ़ करनेके लिये, जो शरीरीको अविनाशी नहीं जानते, उनकी बात आगेके श्लोकमें कहते हैं ।।2.18।। भारतीय दर्शन हमारे पांच शरीर मानता है । पश्चिम का दर्शन सिर्फ भौतिक शरीर मानता है । इस आधार पर वह तनाव जनित रोगों का समाधान नहीं खोज पाया । लेकिन योग हमारे भौतिक शरीर का कारण सुक्ष्म शरीरों का मानता है, जिनमे चिकित्सा कर स्थूल शरीर को ठीक किया जाने लगा । आसन, क्रिया, सूक्ष्म व्यायाम, भौतिक आहार से स्थूल शरीर संतुलित किया जाता है । प्राणायाम व श्वसन क्रियाओं द्वारा प्राण शरीर को मुक्त किया जाता है । हमारी चाहतें व ईष्र्या मनोमय शरीर में होती है । हमारी भावनाओं को ऊंचाकर, भक्ति व समर्पण द्वारा इसे संतुलित किया जाता है । प्रार्थना, मन्त्रोचारण, जप द्वारा भावनाओं को परिष्कृत किया जा सकता है । विवेक को उत्पन्न कर विज्ञानमय शरीर को जीता जा सकता है । दृष्टा होकर पांचवे कोश में जीआ जाता है । http://uthojago.wordpress.com/2013/07/19/%E0%A4%AF%E0%A5%8B%E0%A4%97-%E0%A4%95%E0%A5%87-%E0%A4%85%E0%A4%A8%E0%A5%81%E0%A4%B8%E0%A4%BE%E0%A4%B0-%E0%A4%B9%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%BE-%E0%A4%A8%E0%A4%BF%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%AE-2/
    Hindi commentary by Swami Chinmayananda 
    आत्मा द्वारा धारण किये हुये भौतिक शरीर नाशवान् हैं जबकि आत्मा नित्य, अविनाशी और अप्रमेय अर्थात् बुद्धि के द्वारा जानी नहीं जा सकती। यहाँ आत्मा नित्य और अविनाशी है, ऐसा कहने का अभिप्राय यह है कि आत्मा का न पूर्णत: नाश होता है और न अंशत:।नित्य आत्मतत्त्व को 'अज्ञेय' कहा है जिसका अर्थ यह नहीं कि वह 'अज्ञात' है। इसका तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार हम इन्द्रियों के द्वारा विषयों को जानते हैं, उस प्रकार इस आत्मा को नहीं जाना जा सकता। इसका कारण यह है कि इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि आदि हमारे ज्ञान प्राप्ति के साधन हैं ; वे स्वत: जड़ हैं और चैतन्य आत्मा की उपस्थिति में ही वे अन्य वस्तुओं को प्रकाशित कर सकते हैं। अब जिस चैतन्य के कारण इन्द्रियाँ आदि उपकरण विषयों को ग्रहण करने में समर्थ होते हैं, तब उसी चैतन्य को वे प्रत्यक्ष विषय के रूप में किस प्रकार जान सकते हैं ? यह सर्वथा असम्भव है और इसी दृष्टि से यहाँ आत्मा को 'अज्ञेय' कहा गया है। आत्मा स्वत: सिद्ध है।इसलिये, हे भारत ! तुम युद्ध करो- वास्तव में, इस वाक्य के द्वारा सबको युद्ध करने का आदेश नहीं दिया गया है। जिस धर्म की आधारशिला क्षमा और उदार सहिष्णुता है, उसी धर्म के शास्त्रीय ग्रन्थों में इस प्रकार का युद्ध का नारा संभव नहीं हो सकता। कोई टीकाकार यदि ऐसा अर्थ करता है, तो वह अनुचित है और वह गीता को महाभारत के सन्दर्भ में नहीं पढ़ रहा है। "हे भारत ! तुम युद्ध करो" ये शब्द धर्म का आह्वान है प्रत्येक व्यक्ति के लिये, जिससे वह पराजय की प्रवृत्ति को छोड़कर जीवन में आने वाली प्रत्येक परिस्थिति का निष्ठापूर्वक और साहस के साथ सामना करे। "अधर्म का सक्रिय प्रतिकार " यह गीता में श्रीकृष्ण का मुख्य संदेश है।अब आगे भगवान् उपनिषदों के दो मन्त्र सिद्ध करने के लिये उद्धृत करते हैं कि शास्त्र का मुख्य प्रयोजन संसार के मूल कारण मोह - अविद्या की निवृत्ति करना है। भगवान् कहते हैं , "यह तुम्हारी मिथ्या धारणा है कि 'भीष्म और द्रोण मेरे द्वारा मारे जायेंगे और मैं उनका हत्यारा बनूँगा'..." कैसे ? ।।2.18।।
English commentary by Swami Sivananda
Lord Krishna explains to Arjuna the nature of the all-pervading, immortal Self in a variety of ways and thus induces him to fight by removing his delusion, grief and despondency which are born of ignorance. 





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