Sunday, July 27, 2014

Chapter 2 Shloka 19

    य एनं वेत्ति हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम् उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते ||२-१९|| यः एनम् वेत्ति हन्तारम् यः च एनम् मन्यते हतम् उभौ तौ न विजानीतः न अयम् हन्ति न हन्यते ||२-१९|| यः एनम् हन्तारम् वेत्ति, यः च एनम् हतम् मन्यते तौ उभौ न विजानीतः, अयम् न हन्ति न हन्यते |


    ya enaṁ vetti hantāraṁ yaś cainaṁ manyate hatam ubhau tau na vijānīto nāyaṁ hanti na hanyate
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    यः = anyone who एनं = this वेत्ति = knows हन्तारं = the killer यः = anyone who च = also एनं = this मन्यते = thinks हतं = killed उभौ = both तौ = they न = never विजानीताः = are in knowledge न = never अयं = this हन्ति = kills न = nor हन्यते = is killed.

    Hindi translation by Swami Ram Sukhdas
    जो मनुष्य इस अविनाशी शरीरीको मारनेवाला मानता है और जो मनुष्य इसको मरा मानता है, वे दोनों ही इसको नहीं जानते; क्योंकि यह न मारता है और न मारा जाता है ।।2.19।।
    English translation by Swami Sivananda2.19 He who takes the Self to be the slayer and he who thinks It is slain, neither of them knows. It slays not, nor is It slain.
    Hindi commentary by Swami Ramsukhdas
    व्याख्या -- य एनं (टिप्पणी प0 59) वेत्ति हन्तारम् -- जो इस शरीरीको मारनेवाला मानता है; वह ठीक नहीं जानता। कारण कि शरीरीमें कर्तापन नहीं है। जैसे कोई भी कारीगर कैसा ही चतुर क्यों न हो, पर किसी औजारके बिना वह कार्य नहीं कर सकता, ऐसे ही यह शरीरी शरीरके बिना स्वयं कुछ भी नहीं कर सकता। अतः तेरहवें अध्यायमें भगवान्ने कहा है कि सब प्रकारकी क्रियाएँ प्रकृतिके द्वारा ही होती हैं -- ऐसा जो अनुभव करता है, वह शरीरीके अकर्तापनका अनुभव करता है (13। 29)। तात्पर्य यह हुआ है कि शरीरमें कर्तापन नहीं है, पर यह शरीरके साथ तादात्म्य करके, सम्बन्ध जोड़कर शरीरसे होनेवाले क्रियाओंमें अपनेको कर्ता मान लेता है। अगर यह शरीरके साथ अपना सम्बन्ध न जोड़े, तो यह किसी भी क्रियाका कर्ता नहीं है।यश्चैनं मन्यते हतम् -- जो इसको मरा मानता है, वह भी ठीक नहीं जानता। जैसे यह शरीरी मारनेवाला नहीं है, ऐसे ही यह मरनेवाला भी नहीं है; क्योंकि इसमें कभी कोई विकृति नहीं आती। जिसमें विकृति आती है, परिवर्तन होता है अर्थात् जो उत्पत्ति-विनाशशील होता है, वही मर सकता है।उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते -- वे दोनों ही नहीं जानते अर्थात् जो इस शरीरीको मारनेवाला मानता है, वह भी ठीक नहीं जानता और जो इसको मरनेवाला मानता है, वह भी ठीक नहीं जानता।यहाँ प्रश्न होता है कि जो इस शरीरीको मारनेवाला और मरनेवाला दोनों मानता है, क्या वह ठीक जानता है? इसका उत्तर है कि वह भी ठीक नहीं जानता। कारण कि यह शरीरी वास्तवमें ऐसा नहीं है। यह नाश करनेवाला भी नहीं है और नष्ट होनेवाला भी नहीं है। यह निर्विकाररूपसे नित्य-निरन्तर ज्यों-का-त्यों रहनेवाला है। अतः इस शरीरीको लेकर शोक नहीं करना चाहिये।अर्जुनके सामने युद्धका प्रसंग होनेसे ही यहाँ शरीरीको मरने-मारनेकी क्रियासे रहित बताया गया है। वास्तवमें यह सम्पूर्ण क्रियाओंसे रहित है।सम्बन्ध -- यह शरीरी मरनेवाला क्यों नहीं है? इसके उत्तरमें कहते हैं -- ।।2.19।।
    Hindi commentary by Swami Chinmayananda 
    आत्मा नित्य अविकारी होने से न मारी जाती है और न ही वह किसी को मारती है । शरीर के नाश होने से जो आत्मा को मरी मानने हैं या जो उसको मारने वाली समझते हैं, वे दोनों ही आत्मा के वास्तविक स्वरूप को नहीं जानते और व्यर्थ का विवाद करते हैं। जो मरता है वह शरीर है और "मैं मारने वाला हूँ " यह भाव अहंकारी जीव का है। शरीर और अहंकार को प्रकाशित करने वाली चैतन्य आत्मा दोनों से भिन्न है। संक्षेप में इसका तात्पर्य यह है कि आत्मा न किसी क्रिया का कर्त्ता है और न किसी क्रिया का विषय अर्थात् उस पर किसी प्रकार की क्रिया नहीं की जा सकती।आत्मा किस प्रकार अविकारी है ? इसका उत्तर अगले श्लोक में दिया गया है ।।2.19।।
English commentary by Swami SivanandaThe Self is non-doer (Akarta) and as It is immutable, It is neither the agent nor the object of the act of slaying. He who thinks "I slay" or "I am slain" with the body or the Ahamkara (ego), he does not really comprehend the true nature of the Self. The Self is indestructible. It exists in the three periods of time. It is Sat (Existence). When the body is destroyed, the Self is not destroyed. The body has to undergo change in any case. It is inevitable. But the Self is not at all affected by it. Verses 19, 20, 21, 23 and 24 speak of the immortality of the Self or Atman. 




Monday, July 21, 2014

Chapter 2 Shloka 18

    अन्तवन्त इमे देहा नित्यस्योक्ताः शरीरिणः | अनाशिनोऽप्रमेयस्य तस्माद्युध्यस्व भारत ||२-१८|| अन्तवन्तः इमे देहाः नित्यस्य उक्ताः शरीरिणः | अनाशिनः अप्रमेयस्य तस्मात् युध्यस्व भारत ||२-१८|| अनाशिनः अप्रमेयस्य नित्यस्य शरीरिणः इमे देहाः अन्तवन्तः उक्ताः | हे भारत!तस्मात् युध्यस्व |


    antavanta ime dehā nityasyoktāḥ śarīriṇaḥ anāśino 'prameyasya tasmād yudhyasva bhārata
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    अन्तवन्तः = perishable इमे = all these देहाः = material bodies नित्यस्य = eternal in existence उक्ताः = are said शरीरिणः = of the embodied soul अनाशिनः = never to be destroyed अप्रमेयस्य = immeasurable तस्मात् = therefore युध्यस्व = fight भारत = O descendant of Bharata.

    Hindi translation by Swami Ram Sukhdas
    अविनाशी, अप्रमेय और नित्य रहनेवाले इस शरीरके ये देह अन्तवाले कहे गये हैं। इसलिये हे अर्जुन! तुम युद्ध करो ।।2.18।।
    English translation by Swami Sivananda
    2.18 These bodies of the embodied Self, Which is eternal, indestructible and immeasurable, are said to have an end. Therefore fight, O Arjuna. 
    Hindi commentary by Swami Ramsukhdas
    व्याख्या -- अनाशिनः -- किसी कालमें, किसी कारणसे कभी किञ्चिन्मात्र भी जिसमें परिवर्तन नहीं होता, जिसकी क्षति नहीं होती, जिसका अभाव नहीं होता, उसका नाम अनाशी अर्थात् अविनाशी है।अप्रमेयस्य -- जो प्रमा-(प्रमाण-)का विषय नहीं है अर्थात् जो अन्तःकरण और इन्द्रियोंका विषय नहीं है, उसको ' अप्रमेय ' कहते हैं।जिसमें अन्तःकरण और इन्द्रियाँ प्रमाण नहीं होतीं, उसमें शास्त्र और सन्त-महापुरुष ही प्रमाण होते हैं, शास्त्र और सन्त-महापुरुष उन्हींके लिये प्रमाण होते हैं, जो श्रद्धालु हैं। जिसकी जिस शास्त्र और सन्तमें श्रद्धा होती है, वह उसी शास्त्र और सन्तके वचनोंको मानता है। इसलिये यह तत्त्व केवल श्रद्धाका विषय है (टिप्पणी प0 58.1), प्रमाणका विषय नहीं।शास्त्र और सन्त किसीको बाध्य नहीं करते कि तुम हमारेमें श्रद्धा करो। श्रद्धा करने अथवा न करनेमें मनुष्य स्वतन्त्र है। अगर वह शास्त्र और सन्तके वचनोंमें श्रद्धा करेगा, तो यह तत्त्व उसकी श्रद्धाका विषय है; और अगर वह श्रद्धा नहीं करेगा, तो यह तत्त्व उसकी श्रद्धाका विषय नहीं है।नित्यस्य -- यह नित्य-निरन्तर रहनेवाला है। किसी कालमें यह न रहता हो -- ऐसी बात नहीं है अर्थात् यह सब कालमें सदा ही रहता है।अन्तवन्त इमे देहा उक्ताः शरीरिणः -- इस अविनाशी, अप्रमेय और नित्य शरीरीके सम्पूर्ण संसारमें जितने भी शरीर हैं, वे सभी अन्तवाले कहे गये हैं। अन्तवाले कहनेका तात्पर्य है कि इनका प्रतिक्षण अन्त हो रहा है। इनमें अन्तके सिवाय और कुछ है ही नहीं, केवल अन्त-ही-अन्त है।उपर्युक्त पदोंमें शरीरीके लिये तो एकवचन दिया है और शरीरोंके लिये बहुवचन दिया है। इसका एक कारण तो यह है कि प्रत्येक प्राणीके स्थूल, सूक्ष्म और कारण -- ये तीन शरीर होते हैं। दूसरा कारण यह है कि संसारके सम्पूर्ण शरीरोंमें एक ही शरीरी व्याप्त है। आगे चौबीसवें श्लोकमें भी इसको सर्वगतः पदसे सबमें व्यापक बतायेंगे। यह शरीरी तो अविनाशी है और इसके कहे जानेवाले सम्पूर्ण शरीर नाशवान् हैं। जैसे अविनाशीका कोई विनाश नहीं कर सकता, ऐसे ही नाशवान्को कोई अविनाशी नहीं बना सकता। नाशवान्का तो विनाशीपना ही नित्य रहेगा अर्थात् उसका तो नाश ही होगा।विशेष बातयहाँ अन्तवन्त इमे देहाः कहनेका तात्पर्य है कि ये जो देह देखनेमें आते हैं, ये सब-के-सब नाशवान् हैं। पर ये देह किसके हैं? नित्यस्य, अनाशिनः -- ये देह नित्यके हैं, अविनाशीके हैं। तात्पर्य है कि नित्य-तत्त्वने, जिसका कभी नाश नहीं होता, इनको अपना मान रखा है। अपना माननेका अर्थ है कि अपनेको शरीरमें रख दिया और शरीरको अपनेमें रख लिया। अपनेको शरीरमें रखनेसे ' अहंता ' अर्थात् ' मैं'-पन पैदा हो गया और शरीरको अपनेमें रखनेसे ' ममता ' अर्थात् ' मेरा'-पन पैदा हो गया।यह स्वयं जिन-जिन चीजोंमें अपनेको रखता चला जाता है, उन-उन चीजोंमें ' मैं'-पन होता ही चला जाता है; जैसे -- अपनेको धनमें रख दिया तो ' मैं धनी हूँ '; अपनेको राज्यमें रख दिया तो ' मैं राजा हूँ '; अपनेको विद्यामें रख दिया तो ' मैं विद्वान् हूँ '; अपनेको बुद्धिमें रख दिया तो ' मैं बुद्धिमान् हूँ '; अपनेको सिद्धियों में ख दिया तो ' मैं सिद्ध हूँ '; अपनेको शरीरमें रख दिया तो ' मैं शरीर हूँ '; आदि-आदि।यह स्वयं जिन-जिन चीजोंको अपनेमें रखता चला जाता है, उन-उन चीजोंमें ' मेरा'-पन होता ही चला जाता है; जैसे -- कुटुम्बको अपनेमें रख लिया तो ' कुटुम्ब मेरा है '; धनको अपनेमें रख लिया तो ' धन मेरा है '; बुद्धिको अपनेमें रख लिया तो' बुद्धि मेरी है; शरीरको अपनेमें रख लिया तो ' शरीर मेरा है '; आदि-आदि।जडताके साथ ' मैं' और ' मेरा ' -पन होनेसे ही मात्र विकार पैदा होते हैं। तात्पर्य है कि शरीर और मैं (स्वयं) -- दोनों अलग-अलग हैं, इस विवेकको महत्त्व न देनेसे ही मात्र विकार पैदा होते हैं। परन्तु जो इस विवेकको आदर देते हैं, महत्व देते हैं वे पण्डित होते हैं। ऐसे पण्डितलोग कभी शोक नहीं करते; क्योंकि सत् सत् ही है और असत् असत् ही है -- इसका उनको ठीक अनुभव हो जाता है।तस्मात् (टिप्पणी प0 58.2) युध्यस्व -- भगवान् अर्जुनके लिये आज्ञा देते हैं कि सत्-असत्को ठीक समझकर तुम युद्ध करो अर्थात् प्राप्त कर्तव्यका पालन करो। तात्पर्य है कि शरीर तो अन्तवाला है और शरीरी अविनाशी है। इन दोनों -- शरीर-शरीरीकी दृष्टिसे शोक बन ही नहीं सकता। अतः शोकका त्याग करके युद्ध करो।विशेष बातयहाँ सत्रहवें और अठारहवें -- इन दोनों श्लोकोंमें विशेषतासे सत्-तत्त्वका ही विवेचन हुआ है। कारण कि इस पूरे प्रकरणमें भगवान्का लक्ष्य सत्का बोध करानेमें ही है। सत्का बोध हो जानेसे असत्की निवृत्ति स्वतः हो जाती है। फिर किसी प्रकारका किञ्चिन्मात्र भी सन्देह नहीं रहता। इस प्रकार सत्का अनुभव करके निःसंदिग्ध होकर कर्तव्यका पालन करना चाहिये। इस विवेचनसे यह बात सिद्ध होती है कि सांख्ययोग एवं कर्मयोगमें किसी विशेष वर्ण और आश्रमकी आवश्यकता नहीं है। अपने कल्याणके लिये चाहे सांख्ययोगका अनुष्ठान करे, चाहे कर्मयोगका अनुष्ठान करे, इसमें मनुष्यकी पूर्ण स्वतन्त्रता है। परन्तु व्यावहारिक काम करनेमें वर्ण और आश्रमके अनुसार शास्त्रीय विधानकी परम आवश्यकता है, तभी तो यहाँ सांख्ययोगके अनुसार सत्-असत्का विवेचन करते हुए भगवान् युद्ध करनेकी अर्थात् कर्तव्य-कर्म करनेकी आज्ञा देते हैं।आगे तेरहवें अध्यायमें जहाँ ज्ञानके साधनोंका वर्णन किया गया है, वहाँ भी असक्तिरनभिष्वङ्गः पुत्रदार-गृहादिषु (13। 9) कहकर पुत्र, स्त्री, घर आदिकी आसक्तिका निषेध किया है। अगर संन्यासी ही सांख्ययोगके अधिकारी होते तो पुत्र, स्त्री, घर आदिमें आसक्तिरहित होनेके लिये कहनेकी आवश्यकता ही नहीं थी; क्योंकि संन्यासीके पुत्र-स्त्री आदि होते ही नहीं।इस तरह गीतापर विचार करनेसे सांख्ययोग एवं कर्मयोग -- दोनों परमात्मप्राप्तिके स्वतन्त्र साधन सिद्ध हो जाते हैं। ये किसी वर्ण और आश्रमपर किञ्चिन्मात्र भी अवलम्बित नहीं हैं।सम्बन्ध -- पूर्वश्लोकतक शरीरीको अविनाशी जाननेवालोंकी बात कही। अब उसी बातको अन्वय और व्यतिरेकरीतिसे दृढ़ करनेके लिये, जो शरीरीको अविनाशी नहीं जानते, उनकी बात आगेके श्लोकमें कहते हैं ।।2.18।। भारतीय दर्शन हमारे पांच शरीर मानता है । पश्चिम का दर्शन सिर्फ भौतिक शरीर मानता है । इस आधार पर वह तनाव जनित रोगों का समाधान नहीं खोज पाया । लेकिन योग हमारे भौतिक शरीर का कारण सुक्ष्म शरीरों का मानता है, जिनमे चिकित्सा कर स्थूल शरीर को ठीक किया जाने लगा । आसन, क्रिया, सूक्ष्म व्यायाम, भौतिक आहार से स्थूल शरीर संतुलित किया जाता है । प्राणायाम व श्वसन क्रियाओं द्वारा प्राण शरीर को मुक्त किया जाता है । हमारी चाहतें व ईष्र्या मनोमय शरीर में होती है । हमारी भावनाओं को ऊंचाकर, भक्ति व समर्पण द्वारा इसे संतुलित किया जाता है । प्रार्थना, मन्त्रोचारण, जप द्वारा भावनाओं को परिष्कृत किया जा सकता है । विवेक को उत्पन्न कर विज्ञानमय शरीर को जीता जा सकता है । दृष्टा होकर पांचवे कोश में जीआ जाता है । http://uthojago.wordpress.com/2013/07/19/%E0%A4%AF%E0%A5%8B%E0%A4%97-%E0%A4%95%E0%A5%87-%E0%A4%85%E0%A4%A8%E0%A5%81%E0%A4%B8%E0%A4%BE%E0%A4%B0-%E0%A4%B9%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%BE-%E0%A4%A8%E0%A4%BF%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%AE-2/
    Hindi commentary by Swami Chinmayananda 
    आत्मा द्वारा धारण किये हुये भौतिक शरीर नाशवान् हैं जबकि आत्मा नित्य, अविनाशी और अप्रमेय अर्थात् बुद्धि के द्वारा जानी नहीं जा सकती। यहाँ आत्मा नित्य और अविनाशी है, ऐसा कहने का अभिप्राय यह है कि आत्मा का न पूर्णत: नाश होता है और न अंशत:।नित्य आत्मतत्त्व को 'अज्ञेय' कहा है जिसका अर्थ यह नहीं कि वह 'अज्ञात' है। इसका तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार हम इन्द्रियों के द्वारा विषयों को जानते हैं, उस प्रकार इस आत्मा को नहीं जाना जा सकता। इसका कारण यह है कि इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि आदि हमारे ज्ञान प्राप्ति के साधन हैं ; वे स्वत: जड़ हैं और चैतन्य आत्मा की उपस्थिति में ही वे अन्य वस्तुओं को प्रकाशित कर सकते हैं। अब जिस चैतन्य के कारण इन्द्रियाँ आदि उपकरण विषयों को ग्रहण करने में समर्थ होते हैं, तब उसी चैतन्य को वे प्रत्यक्ष विषय के रूप में किस प्रकार जान सकते हैं ? यह सर्वथा असम्भव है और इसी दृष्टि से यहाँ आत्मा को 'अज्ञेय' कहा गया है। आत्मा स्वत: सिद्ध है।इसलिये, हे भारत ! तुम युद्ध करो- वास्तव में, इस वाक्य के द्वारा सबको युद्ध करने का आदेश नहीं दिया गया है। जिस धर्म की आधारशिला क्षमा और उदार सहिष्णुता है, उसी धर्म के शास्त्रीय ग्रन्थों में इस प्रकार का युद्ध का नारा संभव नहीं हो सकता। कोई टीकाकार यदि ऐसा अर्थ करता है, तो वह अनुचित है और वह गीता को महाभारत के सन्दर्भ में नहीं पढ़ रहा है। "हे भारत ! तुम युद्ध करो" ये शब्द धर्म का आह्वान है प्रत्येक व्यक्ति के लिये, जिससे वह पराजय की प्रवृत्ति को छोड़कर जीवन में आने वाली प्रत्येक परिस्थिति का निष्ठापूर्वक और साहस के साथ सामना करे। "अधर्म का सक्रिय प्रतिकार " यह गीता में श्रीकृष्ण का मुख्य संदेश है।अब आगे भगवान् उपनिषदों के दो मन्त्र सिद्ध करने के लिये उद्धृत करते हैं कि शास्त्र का मुख्य प्रयोजन संसार के मूल कारण मोह - अविद्या की निवृत्ति करना है। भगवान् कहते हैं , "यह तुम्हारी मिथ्या धारणा है कि 'भीष्म और द्रोण मेरे द्वारा मारे जायेंगे और मैं उनका हत्यारा बनूँगा'..." कैसे ? ।।2.18।।
English commentary by Swami Sivananda
Lord Krishna explains to Arjuna the nature of the all-pervading, immortal Self in a variety of ways and thus induces him to fight by removing his delusion, grief and despondency which are born of ignorance. 





Monday, July 14, 2014

Chapter 2 Shloka 17

          अविनाशि तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम् | विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित्कर्तुमर्हति ||२-१७|| अविनाशि तु तत् विद्धि येन सर्वम् इदम् ततम् | विनाशम् अव्ययस्य अस्य न कश्चित् कर्तुम् अर्हति ||२-१७|| विद्धि, येन इदम् सर्वम् ततम्, तत् तु अविनाशि | अस्य अव्ययस्य विनाशम् कर्तुम्, कश्चित् न अर्हति |
        avināśi tu tad viddhi
        yena sarvam idaṁ tatam
        vināśam avyayasyāsya
        na kaścit kartum arhati
          अविनाशि = imperishable तु = but तत् = that विद्धि = know it येन = by whom सर्वं = all of the body इदं = this ततं = pervaded विनाशं = destruction अव्ययस्य = of the imperishable अस्य = of it न कश्चित् = no one कर्तुं = to do अर्हति = is able.

        Hindi translation by Swami Ram Sukhdas
        अविनाशी तो उसको जान, जिससे यह सम्पूर्ण संसार व्याप्त है। इस अविनाशीका विनाश कोई भी नहीं कर सकता ।।2.17।।
        English translation by Swami Sivananda
        2.17 Know that to be indestructible, by Which all this is pervaded. None can cause the destruction of That, the Imperishable. 
        Hindi commentary by Swami Ramsukhdas
        व्याख्या -- अविनाशि तु तद्विद्धि -- पूर्वश्लोकमें जो सत्-असत्की बात कही थी, उसमेंसे पहले सत्की व्याख्या करनेके लिये यहाँ तु पद आया है।' उस अविनाशी तत्त्वको तू समझ ' -- ऐसा कहकर भगवान्ने उस तत्वको परोक्ष बताया है। परोक्ष बतानेमें तात्पर्य है कि इदंतासे दीखनेवाले इस सम्पूर्ण संसारमें वह परोक्ष तत्त्व ही व्याप्त है, परिपूर्ण है। वास्तवमें जो परिपूर्ण है, वही ' है ' और जो सामने संसार दीख रहा है, यह ' नहीं ' है।यहाँ तत् पदसे सत्-तत्त्वको परोक्षरीतिसे कहनेका तात्पर्य यह नहीं है कि वह तत्त्व बहुत दूर है; किन्तु वह इन्द्रियों और अन्तःकरणका विषय नहीं है, इसलिये उसको परोक्षरीतिसे कहा गया है।येन सर्वमिदं ततम् (टिप्पणी प0 57.1) -- जिसको परोक्ष कहा है, उसीका वर्णन करते हैं कि यह सब-का-सब संसार उस नित्य-तत्त्वसे व्याप्त है। जैसे सोनेसे बने हुए गहनोंमें सोना, लोहेसे बने हुए अस्त्र-शस्त्रोंमें लोहा, मिट्टीसे बने हुए बर्तनोंमें मिट्टी और जलसे बनी हुई बर्फमें जल ही व्याप्त (परिपूर्ण) है, ऐसे ही संसारमें वह सत्-तत्त्व ही व्याप्त है। अतः वास्तवमें इस संसारमें वह सत्-तत्त्व ही जाननेयोग्य है।विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित्कर्तुमर्हति -- यह शरीरी अव्यय (टिप्पणी प0 57.2) अर्थात् अविनाशी है। इस अविनाशीका कोई विनाश कर ही नहीं सकता। परन्तु शरीर विनाशी है -- क्योंकि वह नित्य-निरन्तर विनाशकी तरफ जा रहा है। अतः इस विनाशीके विनाशको कोई रोक ही नहीं सकता। तू सोचता है कि मैं युद्ध नहीं करूँगा तो ये नहीं मरेंगे, पर वास्तवमें तेरे युद्ध करनेसे अथवा न करनेसे इस अविनाशी और विनाशी तत्त्वमें कुछ फरक नहीं पड़ेगा अर्थात् अविनाशी तो रहेगा ही और विनाशीका नाश होगा ही।यहाँ अस्य पदसे सत्-तत्त्वको इदंतासे कहनेका तात्पर्य है कि प्रतिक्षण बदलनेवाले शरीरोंमें जो सत्ता दीखती है, वह इसी सत्-तत्त्वकी ही है। ' मेरा शरीर है और मैं शरीरधारी हूँ' -- ऐसा जो अपनी सत्ताका ज्ञान है, उसीको लक्ष्य करके भगवान्ने यहाँ अस्य पद दिया है ।।2.17।।
        Hindi commentary by Swami Chinmayananda 
        समस्त जगत् को जो व्याप्त किये हुये है और इस दृश्यमान अनुभव में आने वाले जगत् का जो अधिष्ठान है, वह सत् है। मिट्टी के बने अनेक प्रकार के पात्र होते हैं, जिनके, विभिन्न उपयोगों के कारण अथवा उनमें रखी वस्तुओं के कारण उनके विभिन्न नाम होते हैं, परंतु विविध आकारों के होने पर भी वे सब एक मिट्टी के ही बने होते हैं, जो सब आकारों में व्याप्त होती है और जिसके बिना किसी भी पात्र का अस्तित्व सिद्ध नहीं हो सकता। उन सब की उत्पत्ति, स्थिति और लय मिट्टी में ही है। अत: उनमें मिट्टी ही वास्तव में सत्य है।इसी प्रकार, यह नित्य परिवर्तनशील जगत् नित्य अविनाशी तत्त्व से व्याप्त है और भगवान् कहते हैं कि इस तत्त्व का विनाश कदापि सम्भव नहीं है।तब फिर असत् क्या है जिसका अस्तित्व नित्य नहीं है ? सुनो -- ।।2.17।।

        English commentary by Swami Sivananda
        The changeless, homogeneous Atman or the Self always exists. It is the only solid Reality. This phenomenal world of names and forms is ever changing. Hence it is unreal. The sage or the Jivanmukta is fully aware that the Self always exists and that this world is like a mirage. Through his Jnanachakshus or the eye of intuition, he directly cognises the Self. This world vanishes for him like the snake in the rope, after it has been seen that only the rope exists. He rejects the names and forms and takes the underlying Essence in all the names and forms, viz., Asti-Bhati-Priya or Satchidananda or Existence-Knowledge-Bliss Absolute. Hence he is a Tattvadarshi or a knower of the Truth or the Essence.What is changing must be unreal. What is constant or permanent must be real. 


Saturday, July 5, 2014

Chapter 2 Shloka 16

    नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः | उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभिः ||२-१६|| न असतः विद्यते भावः न अभावः विद्यते सतः | उभयोः अपि दृष्टः अन्तः तु अनयोः तत्त्व-दर्शिभिः ||२-१६|| असतः भावः न विद्यते सतः अभावः न विद्यते | तत्त्व-दर्शिभिः तु उभयोः अपि अनयोः अन्तः दृष्टः |
    nāsato vidyate bhāvo nābhāvo vidyate sataḥ ubhayor api dṛṣṭo 'ntas tvanayos tattva-darśibhiḥ न = never असतः = of the nonexistent विद्यते = there is भावः = endurance न = never अभावः = changing quality विद्यते = there is सतः = of the eternal उभयोः = of the two अपि = verily दृष्टः = observed अन्तः = conclusion तु = indeed अनयोः = of them तत्त्व = of the truth दर्शिभिः = by the seers.

    Hindi translation by Swami Ram Sukhdas
    (टिप्पणी प0 55) असत्का तो भाव (सत्ता) विद्यमान नहीं है और सत्का अभाव विद्यमान नहीं है, तत्त्वदर्शी महापुरुषोंने इन दोनोंका ही अन्त अर्थात् तत्त्व देखा है ।।2.16।।
    English translation by Swami Sivananda
    2.16 The unreal hath no being; there is non-being of the real; the truth about both has been seen by the knowers of the Truth (or the seers of the Essence). 
    Hindi commentary by Swami Ramsukhdas
    व्याख्या -- नासतो विद्यते भावः -- शरीर उत्पत्तिके पहले भी नहीं था, मरनेके बाद भी नहीं रहेगा और वर्तमानमें भी इसका क्षण-प्रतिक्षण अभाव हो रहा है। तात्पर्य है कि यह शरीर भूत, भविष्य और वर्तमान -- इन तीनों कालोंमें कभी भावरूपसे नहीं रहता। अतः यह असत् है। इसी तरहसे इस संसारका भी भाव नहीं है, यह भी असत् है। यह शरीर तो संसारका एक छोटा-सानमूना है; इसलिये शरीरके परिवर्तनसे संसारमात्रके परिवर्तनका अनुभव होता है कि इस संसारका पहले भी अभाव था और पीछे भी अभाव होगा तथा वर्तमानमें भी अभाव हो रहा है।संसारमात्र कालरूपी अग्निमें लकड़ीकी तरह निरन्तर जल रहा है। लकड़ीके जलनेपर तो कोयला और राख बची रहती है, पर संसारको कालरूपी अग्नि ऐसी विलक्षण रीतिसे जलाती है कि कोयला अथवा राख कुछ भी बाकी नहीं रहता। वह संसारका अभाव-ही-अभाव कर देती है। इसलिये कहा गया है कि असत्की सत्ता नहीं है।नाभावो विद्यते सतः -- जो सत् वस्तु है, उसका अभाव नहीं होता अर्थात् जब देह उत्पन्न नहीं हुआ था, तब भी देही था, देह नष्ट होनेपर भी देही रहेगा और वर्तमानमें देहके परिवर्तनशील होनेपर भी देही उसमें ज्यों-का-त्यों ही रहता है। इसी रीतिसे जब संसार उत्पन्न नहीं हुआ था, उस समय भी परमात्मतत्त्व था, संसारका अभाव होनेपर भी परमात्मतत्त्व रहेगा और वर्तमानमें संसारके परिवर्तनशील होनेपर भी परमात्मतत्त्व उसमें ज्यों-का-त्यों ही है।मार्मिक बात संसारको हम एक ही बार देख सकते हैं, दूसरी बार नहीं। कारण कि संसार प्रतिक्षण परिवर्तनशील है; अतः एक क्षण पहले वस्तु जैसी थी, दूसरे क्षणमें वह वैसी नहीं रहती, जैसे -- सिनेमा देखते समय परदेपर दृश्य स्थिर दीखता है; पर वास्तवमें उसमें प्रतिक्षण परिवर्तन होता रहता है। मशीनपर फिल्म तेजीसे घूमनेके कारण वह परिवर्तन इतनी तेजीसे होता है कि उसे हमारी आँखें नहीं पकड़ पातीं (टिप्पणी प0 56.1)। इससे भी अधिक मार्मिक बात यह है कि वास्तवमें संसार एक बार भी नहीं दीखता। कारण कि शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदि जिन करणोंसे हम संसारको देखते हैं -- अनुभव करते हैं, वे करण भी संसारके ही हैं। अतः वास्तवमें संसारसे ही संसार दीखता है। जो शरीर-संसारसे सर्वथा सम्बन्ध-रहित है, उस स्वरूपसे संसार कभी दीखता ही नहीं! तात्पर्य यह है कि स्वरूपमें संसारकी प्रतीति नहीं है। संसारके सम्बन्धसे ही संसारकी प्रतीति होती है। इससे सिद्ध हुआ कि स्वरूपका संसारसे कोई सम्बन्ध है ही नहीं।दूसरी बात, संसार (शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि) की सहायताके बिना चेतन-स्वरूप कुछ कर ही नहीं सकता। इससे सिद्ध हुआ कि मात्र क्रिया संसारमें ही है, स्वरूपमें नहीं। स्वरूपका क्रियासे कोई सम्बन्ध है ही नहीं।संसारका स्वरूप है -- क्रिया और पदार्थ। जब स्वरूपका न तो क्रियासे और न पदार्थसे ही कोई सम्बन्ध है, तब यह सिद्ध हो गया कि शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धि-सहित सम्पूर्ण संसारका अभाव है। केवल परमात्मतत्त्वका ही भाव (सत्ता) है, जो निर्लिप्तरूपसे सबका प्रकाशक और आधार है।उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभिः -- इन दोनोंके अर्थात् सत्-असत्, देही-देहके तत्त्वको जाननेवाले महापुरुषोंने इनका तत्त्व देखा है, इनका निचोड़ निकाला है कि केवल एक सत्-तत्त्व ही विद्यमान है।असत् वस्तुका तत्त्व भी सत् है और सत् वस्तुका तत्त्व भी सत् है अर्थात् दोनोंका तत्त्व एक ' सत् ' ही है, दोनोंका तत्त्व भावरूपसे एक ही है। अतः सत् और असत् -- इन दोनोंके तत्त्वको जाननेवाले महापुरुषोंके द्वारा जाननेमें आनेवाला एक सत्-तत्त्व ही है। असत्की जो सत्ता प्रतीत होती है, वह सत्ता भी वास्तवमें सत्की ही है। सत्की सत्तासे ही असत् सत्तावान् प्रतीत होता है। इसी सत्को परा प्रकृति (गीता 7। 5), क्षेत्रज्ञ (गीता 13। 1-2), पुरुष (गीता 13। 19) और अक्षर (गीता 15। 16) कहा गया है; तथा असत्को अपरा प्रकृति, क्षेत्र, प्रकृति और क्षर कहा गया है।अर्जुन भी शरीरोंको लेकर शोक कर रहे हैं कि युद्ध करनेसे ये सब मर जायँगे। इसपर भगवान् कहते हैं कि क्या युद्ध न करनेसे ये नहीं मरेंगे? असत् तो मरेगा ही और निरन्तर मर ही रहा है। परन्तु इसमें जो सत्-रूपसे है, उसका कभी अभाव नहीं होगा। इसलिये शोक करना तुम्हारी बेसमझी ही है।ग्यारहवें श्लोकमें आया है कि जो मर गये हैं और जो जी रहे हैं, उन दोनोंके लिये पण्डितजन शोक नहीं करते। बारहवें-तेरहवें श्लोकोंमें देहीकी नित्यताका वर्णन है उसमें धीर शब्द आया है। चौदहवें-पंद्रहवें श्लोकोंमें संसारकी अनित्यताका वर्णन आया है, तो उसमें भी धीर शब्द आया है। ऐसे ही यहाँ (सोलहवें श्लोकमें) सत्-असत्का विवेचन आया है, तो इसमें तत्त्वदर्शी (टिप्पणी प0 56.2) शब्द आया है। इन श्लोकोंमें पण्डित, धीर और तत्त्वदर्शी पद देनेका तात्पर्य है कि जो विवेकी होते हैं, समझदार होते हैं, उनको शोक नहीं होता। अगर शोक होता है, तो वे विवेकी नहीं हैं, समझदार नहीं हैं।सम्बन्ध -- सत् और असत् क्या है -- इसको आगेके दो श्लोकोंमें बताते हैं ।।2.16।।
    Hindi commentary by Swami Chinmayananda 
    वेदान्त शास्त्र में सत् -असत् का विवेक अत्यन्त वैज्ञानिक पद्धति से किया गया है। हमारे दर्शनशास्त्र में इन दोनों की ही परिभाषायें दी हुई हैं। "असत् वस्तु वह है, जिसकी भूतकाल में सत्ता नहीं थी और भविष्य में भी वह नहीं होगी परन्तु वर्तमान में उसका अस्तित्व प्रतीत-सा होता है। माण्डूक्य कारिका की भाषा में, "जिसका अस्तित्व प्रारम्भ और अन्त में नहीं है, वह वर्तमान में भी असत् ही है; हमें दिखाई देने वाली वस्तुयें मिथ्या होने पर भी उन्हें सत् माना जाता है।स्वाभाविक ही, "सत्य वस्तु वह है जो भूत,वर्तमान, भविष्य इन तीनों कालों में भी नित्य अविकारी रूप में रहती है।" सामान्य व्यवहार में यदि कोई व्यक्ति किसी स्तम्भ को भूत समझ लेता है, तो स्तम्भ की दृष्टि से भूत को असत् कहा जायेगा ; क्योंकि भूत अनित्य है और स्तम्भ का ज्ञान होने पर वहाँ रहता नहीं। इसी प्रकार स्वप्न से जागने पर स्वप्न के बच्चों के लिये हमें कोई चिन्ता नहीं होती, क्योंकि जागने पर स्वप्न के मिथ्यात्व का हमें बोध होता है। प्रतीत होने पर भी स्वप्न मिथ्या है। अत: तीनों काल में अबाधित वस्तु ही सत्य कहलाती है।शरीर, मन और बुद्धि इन जड़ उपाधियों के साथ हमारा जीवन परिच्छिन्न है, क्योंकि इनके द्वारा प्राप्त बाह्य विषय, भावना और विचारों के अनुभव क्षणिक होते हैं। इन तीनों में ही नित्य परिवर्तन हो रहा है। एक अवस्था का नाश दूसरी अवस्था की उत्पत्ति है। परिभाषा के अनुसार ये सब 'असत्' हैं।क्या इनके पीछे कोई सत्य वस्तु है ? इसमें कोई संदेह नहीं कि वस्तुओं में होने वाले परिवर्तनों के लिये किसी एक अविकारी अधिष्ठान - आश्रय की आवश्यकता है। शरीर, मन और बुद्धि के स्तर पर होने वाले असंख्य अनुभवों को एक सूत्र में धारण कर एक पूर्ण जीवन का अनुभव कराने के लिये निश्चय ही एक नित्य, अपरिर्तनशील सत् वस्तु का अधिष्ठान आवश्यक है।मणियों को धारण करने वाले एक सूत्र के समान हममें 'कुछ' है जो परिवर्तनों के मध्य रहते हुये विविध अनुभवों को एक साथ बांधकर रखता है। सूक्ष्म विचार करने पर यह ज्ञान होगा कि वह 'कुछ' अपनी स्वयं की चैतन्य स्वरूप आत्मा है। असंख्य अनुभव जो प्रकाशित हुये, उनमें से कोई अनुभव आत्मा नहीं है। जीवन जो कि अनुभवों की एक धारा है, योग है, इस चैतन्य के कारण ही सम्भव है। बाल्यावस्था, युवावस्था और वृद्धावस्था में होने वाले अनुभवों को यह चैतन्य ही प्रकाशित करता है। अनुभव आते हैं और जाते हैं। जिस चैतन्य के कारण मैंने सबको जाना, जिसके बिना मेरा कोई अस्तित्व नहीं है - 'वह' चैतन्य आत्मा जन्म और नाश से रहित, नित्य सत्य वस्तु है।तत्त्वदर्शी पुरुष इन दोनों - सत् और असत्, आत्मा और अनात्मा के तत्त्व को पहचानते हैं। इन दोनों के रहस्यमय संयोग से यह विचित्र जगत् उत्पन्न होता है।फिर वह नित्य सद्वस्तु क्या है? सुनो -- ।।2.16।।
    English commentary by Swami Sivananda
    The changeless, homogeneous Atman or the Self always exists. It is the only solid Reality. This phenomenal world of names and forms is ever changing. Hence it is unreal. The sage or the Jivanmukta is fully aware that the Self always exists and that this world is like a mirage. Through his Jnanachakshus or the eye of intuition, he directly cognises the Self. This world vanishes for him like the snake in the rope, after it has been seen that only the rope exists. He rejects the names and forms and takes the underlying Essence in all the names and forms, viz., Asti-Bhati-Priya or Satchidananda or Existence-Knowledge-Bliss Absolute. Hence he is a Tattvadarshi or a knower of the Truth or the Essence.What is changing must be unreal. What is constant or permanent must be real.